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इतिहास: 83 साल पहले शुरू हुआ था ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, टूटने लगी थीं गुलामी की जंजीरें

देशबन्धु by देशबन्धु
August 8, 2025
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 8 अगस्त (आईएएनएस)। अगस्त महीने की अहमियत भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। ‘भारत छोड़ो’ जैसे क्रांति के आंदोलन से आजादी की रेखा अगस्त महीने में ही खींची गई थी। ‘करो या मरो’ नारे के साथ आजादी की लड़ाई में कूदे देश के महान वीरों ने 8 अगस्त को अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए यह आंदोलन छेड़ा था, जिसे 83 साल पूरे हो रहे हैं। इस आंदोलन का इतिहास गुमनाम नायकों से भरा पड़ा है।

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साल 1942 का था, जब दुनिया में जोरदार नौसैनिक युद्धों की खबरें आ रही थीं। इधर, भारत भी सदियों पुरानी गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए बेचैन था। ऐसे में सर स्टैफोर्ड क्रिप्स युद्ध में भारत के समर्थन के बदले में डोमिनियन स्टेटस का प्रस्ताव लेकर आए। उन्हें यह एहसास नहीं था कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे महान वीरों ने डोमिनियन स्टेटस के लिए अपने प्राणों की आहुति नहीं दी थी। देशभर के स्वतंत्रता सेनानियों की मांग एकमत थी और वह थी ‘पूर्ण स्वराज’, यानी पूर्ण स्वतंत्रता। इसलिए, आज से 83 साल पहले 8 अगस्त 1942 की पूर्व संध्या पर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का शंखनाद हुआ था। महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत की थी।

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भारत छोड़ो आंदोलन ऐसे समय में शुरू हुआ जब दुनिया में उथल-पुथल थी। पश्चिम में युद्ध चल रहा था और पूर्व में उपनिवेशवाद के विरुद्ध आंदोलन तेज थे। हालांकि, भारतीय संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर यह जानकारी मिली है कि ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के पीछे तीन कारण थे। पहला, 1942 के मध्य में जापानी सेना तेजी से भारत की सीमाओं की ओर बढ़ रही थी। दूसरा, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने से पहले भारत की भावी स्थिति की समस्या को सुलझाने के लिए एक-दूसरे पर दबाव डाल रहे थे। तीसरा, मार्च 1942 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को ब्रिटिश सरकार के घोषणा-पत्र के मसौदे पर चर्चा करने के लिए भारत भेजा था। इस मसौदे में युद्ध के बाद भारत को एक अधिराज्य का दर्जा दिया गया था।

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हालांकि, इसने 1935 के ब्रिटिश भारत सरकार अधिनियम में कुछ अतिरिक्त संशोधन किए। कांग्रेस कार्य समिति ने घोषणा-पत्र के मसौदे को अस्वीकार्य बताते हुए खारिज कर दिया। इसके अलावा, इसके जवाब में ब्रिटिश शासन के प्रति जनता के असंतोष को ध्यान में रखते हुए एक प्रस्ताव तैयार किया गया। प्रस्ताव की जांच के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक 29 अप्रैल से 1 मई 1942 तक इलाहाबाद में हुई। फिर, 14 जुलाई को वे वर्धा में फिर से एकत्र हुए और गांधी को प्रस्ताव में परिकल्पित अहिंसक जन आंदोलन का नेतृत्व करने देने पर सहमत हुए।

आखिर में 7 और 8 अगस्त 1942 को, महाराष्ट्र के बॉम्बे जिले (वर्तमान मुंबई) में कांग्रेस समिति ने ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया, जिसमें ब्रिटिश शासन को तत्काल समाप्त करने का आह्वान किया गया।

‘महात्मा गांधी डॉट ओआरजी’ में ‘भारत छोड़ो आंदोलन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कैसे नई दिशा दी?’ नाम से एक लेख में लिखा, “8 अगस्त को बापू ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान से लोगों को संबोधित किया था। महात्मा गांधी ने कहा, ‘यह एक छोटा-सा मंत्र है जो मैं आपको देता हूं। इसे अपने हृदय में अंकित कर लें, ताकि हर सांस में आप इसे अभिव्यक्त कर सकें। मंत्र है- ‘करो या मरो’। या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या कोशिश करते हुए मरेंगे। हम अपनी गुलामी को जारी रहते हुए देखने के लिए जीवित नहीं रहेंगे।’ इसके बाद अरुणा आसफ अली ने मैदान पर तिरंगा फहराया और भारत छोड़ो आंदोलन की आधिकारिक घोषणा हो गई।”

एक ओर भारत महात्मा गांधी के नेतृत्व की ओर देख रहा था, जो अहिंसक तरीकों और सत्याग्रह के माध्यम से समाज को बदलना चाहते थे। दूसरी ओर ‘बंगाल के शेर’, सुभाष चंद्र बोस थे, जिन्होंने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था और भारत को आजाद कराने के लिए एक सेना के साथ मार्च कर रहे थे। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की उपजाऊ भूमि जनांदोलनों की पर्याप्त खाद पा चुकी थी और अब स्वतंत्रता के बीज बोने के लिए उपजाऊ थी।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ पर पीआईबी आर्काइव में जिक्र है कि आंदोलन की घोषणा के 24 घंटे के भीतर सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था, फिर भी आंदोलन ने समाज के सभी वर्गों से नेताओं को सहारा दिया। पूरे देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। लोगों ने ब्रिटिश सरकार के प्रतीकों के खिलाफ प्रदर्शन किए, सरकारी इमारतों पर कांग्रेस का झंडा फहराया। इस आंदोलन में राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेताओं का उदय हुआ।

देश के कई हिस्सों में समानांतर सरकारें बनीं। भारत छोड़ो आंदोलन इस मायने में अनूठा था कि इसमें महिलाओं की भागीदारी देखी गई, जहां उन्होंने न सिर्फ समान रूप से भाग लिया, बल्कि आंदोलन का नेतृत्व भी किया। मातंगिनी हाजरा थीं, जिन्होंने एक स्थानीय पुलिस स्टेशन में तोड़फोड़ करने के लिए 6,000 लोगों, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं, के जुलूस का नेतृत्व किया। उन्होंने पुलिस की गोलियों से अपनी जान गंवा दी और उनके हाथों में तिरंगा था। फिर सुचेता कृपलानी थीं, जो बाद में भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। उड़ीसा में नंदिनी देवी और शशिबाला देवी थीं, जबकि असम में कनकलता बरुआ और काहुली देवी जैसी लड़कियों ने भाग लिया। पटना शहर सात युवा शहीदों की कहानी कहता है जो पटना सचिवालय पर शांतिपूर्वक कांग्रेस का झंडा फहराने की कोशिश करते हुए मारे गए। ये युवा भारत छोड़ो आंदोलन की भावना का प्रतीक हैं।

हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध के अंत (1944) तक इन आंदोलनों को दबा दिया, लेकिन तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन की स्थिति काफी बदल चुकी थी और भारत की स्वतंत्रता की मांग को अब और टाला नहीं जा सकता था।

भारत छोड़ो आंदोलन इस मायने में एक ऐतिहासिक आंदोलन था कि इसने भारत में भविष्य की राजनीति की जमीन भी तैयार की थी। पीआईबी आर्काइव के अनुसार, महात्मा गांधी ने गोवालिया टैंक मैदान में भाषण दिया, ‘जब सत्ता आएगी, तो वह भारत के लोगों की होगी, और यह उन्हें ही तय करना होगा कि वह किसे सौंपी जाए।”

–आईएएनएस

डीसीएच/डीकेपी

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