नई दिल्ली, 22 अक्टूबर (आईएएनएस)। देश में आजादी के पहले 19वीं सदी की शुरुआत में कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ जंग का बिगुल फूंका था।
रानी चेन्नम्मा ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व करने वाली जांबाज वीरांगना रहीं। जिनकी कहानी लोगों के जुबान पर छाई रहती है।
1824 में कित्तूर पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए उन्होंने कित्तूर विद्रोह का नेतृत्व किया। रानी चेन्नम्मा की कहानी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह विश्व विख्यात है। इसलिए उन्हें ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ कहा जाता है। वह घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी और बहादुरी में पारंगत थीं।
रानी चेन्नम्मा द्वारा प्रज्वलित स्वतंत्रता की लौ ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में कित्तूर के राजा मल्लासराजा से विवाह किया और उनकी मृत्यु के बाद अपने राज्य की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटा से गांव ककाती में हुआ था। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई, जिसके बाद वह कित्तूर की रानी बन गई। किवदंती है कि बाघ का शिकार करते समय उनकी मुलाकात राजा मल्लासराज से हुई थी। शादी के बाद उनका एक बेटा हुआ, जो असमय ही काल के गाल में समा गया।
अपने बेटे की मौत के बाद रानी चेन्नम्मा ने शिवलिंगप्पा नाम के बच्चे को गोद लिया और अपना वारिस घोषित कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
इसके बाद ब्रिटिश शासन और कित्तूर के बीच लड़ाई शुरू हो गई। कित्तूर पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए रानी चेन्नम्मा ने कित्तूर विद्रोह का नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने 20,000 सिपाहियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तूर राज्य पर हमला बोल दिया। घोड़े पर सवार रानी चेन्नम्मा ने किले की प्राचीर से सैन्य अभियानों का निर्देशन करते हुए ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुंचाया और उनके कई अधिकारियों को मौत के घाट उतारा।
इसके बाद अंग्रेजों की ओर से युद्ध न करने के वादा के बाद रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा देते हुए फिर से युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में कम सैनिक होने के कारण रानी चेन्नम्मा को हार का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया। इसके बाद युद्ध बंदी के रूप में उसी किले में 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।
–आईएएनएस
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