नई दिल्ली, 27 फरवरी (आईएएनएस)। फगुआ दस्तक दे चुका है। पूर्वांचल की मिट्टी झाल, मंजीरों और ढोलक की ताल पर गमकने लगी है। गांव खेड़ों में फाग के रंग में सराबोर खाटी देसी गवनियारों की आवाज रोमांच पैदा कर रही है। माघ महीने से फाग या फगुआ का रंग चढ़ता है जो चैत तक कायम रहता है।
ऊंची तान में जब – “बंगला में उड़ेला अबीर, अरे लाल, बंगला में उड़ेला अबीर, हो बाबू आहे, बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अबीर” चढ़ता है तो सीना चौड़ा हो जाता है, 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले कुंवर सिंह आंखों के आगे तिर जाते हैं।
फिर तो सिलसिला आगे बढ़ता है और श्रृंगार और भक्ति रस में डूबे फाग से मन मस्तिष्क रोमांचित हो जाता है – सवाल जवाब का दौर भी खूब रमता है। “केकर हाथे कनक पिचकारी” तो जवाब मिलता है “राम के हाथे”, समा बांधता है और फिर लोग रम जाते हैं। “जोगीरा सा रा रा” के साथ माहौल और भी दमदार हो जाता है। ये भी फगुआ की एक विधा है। कहा जाता है इसकी उत्पत्ति जोगियों की हठ-साधना, वैराग्य और उलटबांसियों का मज़ाक उड़ाने के लिए हुई। जिसमें सामाजिक, प्रशासनिक और राजनीतिक कुरीतियों पर आघात हंसी ठिठोली के साथ कर दिया जाता है। अंत में जब “हइ रे हइ रे हइ” होता है, बात दिल के रास्ते दिमाग तक पहुंच जाती है। ये भी सामान्य और सवाल जवाब के धागे में बंधा होता है।
फगुआ, फागुवाई से होते हुए लटकन पर आकर गवनिए थमते हैं, लटकन में हल्के-फुल्के अंदाज में बात कह दी जाती है। असल में अंत तक आते-आते थोड़ा गीत लटक जाता है और इसे ही लपकने की कोशिश में सब लग जाते हैं। लय बदलने लगती है और ‘धागे न तिनक धिन’ वाला कहरवा या ‘दादरा’ ढोलक पर बजने लगती है। ये बदलाव भी बसंती बयार की तरह होता है, जिसमें छेड़छाड़ का पुट होता है, मनुहार होती है और प्यार भरी झिड़की भी।
खास बात ये कि गवनियार, जोगीरे या होलियारे किसी एक जाति या धर्म के नहीं होते बल्कि हुनरमंद खुद ब खुद इसका हिस्सा बन जाते हैं।
–आईएएनएस
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