गया (बिहार), 5 फरवरी (आईएएनएस)। बिहार का मैनचेस्टर कहे जाने वाले गया जिले में मानपुर के पटवा टोली में अब वह स्थिति नहीं है जब इसकी पहचान बुनकरों के गांव के रूप में होती थी। अब यहां सबकुछ सामान्य नहीं दिखता है। यहां काम करनेवाले बुनकरों से लेकर पावरलूम मालिकों तक को कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है।
यहां बुनकरों के सामने आज सबसे बड़ी समस्या अपना अस्तित्व बचाने की है। ये आज तकनीकी तौर से उन्नत मशीनों से प्रतियोगिता नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि यहां के बाजारों में पंजाब और लुधियाना से तैयार कपडों की मांग बढ़ती जा रही है।
गया जिले में फल्गु नदी के किनारे बसा है मानपुर। गांव के पटवा टोली के कमोबेश हर घर में पावरलूम और हैंडलूम चलता है जिसमें गमछा, लुंगी से लेकर रजाई, गद्दे और तकिये के खोल बनते हैं।
मानपुर को मिनी कानपुर भी कहा जाता है। यहीं एक पावरलूम में काम करने वाले 55 वर्षीय जुम्मन अंसारी बताते हैं कि पहले वाली अब बात नहीं है। पहले आने वाली पीढ़ियां भी इसी व्यवसाय को अपना धंधा बनाते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। अब बच्चे इस काम में नहीं आना चाहते। हमलोग भी नहीं चाहते कि आने वाली पीढ़ी इस धंधे में उतरे।
वे पुरानी बातों को याद करते हुए कहते हैं कि पहले यहां कच्चे माल (धागा) आसानी से मिल जाते थे, लेकिन आज धागा भी अन्य राज्यों से मंगाना पड़ता है। आज भी हम पुराने तरीके से कपड़े बुनते हैं, जबकि अन्य राज्यों में कपड़े बुनने की तकनीक आगे बढ़ गई है।
बिहार प्रदेश बुनकर कल्याण संघ के अध्यक्ष गोपाल प्रसाद पटवा आईएएनएस को बताते हैं कि यह सच है कि पहले गया, भागलपुर, मोकामा सहित कई अन्य क्षेत्रों में धागा बनाए जाते थे, धीरे-धीरे ये कारखाने बंद हो गए। आज बुनकरों को अन्य राज्यों से धागे मंगाने पड़ते हैं।
वे कहते हैं कि सही तौर पर यह व्यवसाय कुटीर उद्योग है, जिसमें घर का पूरा परिवार लगा रहता है। उन्होंने कहा कि गया में मिनी टेक्सटाइल पार्क स्क्रीनिंग यार्न मिल आज घरेलू सूक्ष्म कुटीर वस्त्र उद्योग से काफी लाभप्रद होंगे। वे कहते हैं कि आधुनिक तकनीक अपनाने से लागत तो कम आएगी ही, उत्पादन की गुणवत्ता और उसकी क्वालिटी भी बढ़ेगी।
मानपुर के पटवा टोली में 12 हजार पावरलूम मशीन के अलावा बड़ी संख्या में हैंडलूम मशीनों की एक हजार वस्त्र उत्पादन इकाइ्रयां चल रही हैं। इन मशीनों को संचालन के साथ-साथ सूत रंगाई और धुलाई के साथ कैलेंडरिंग मशीन को चलाने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 20 हजार कामगारों को रोजगार मुहैया हो रहा है।
एक बुजुर्ग कारीगर बताते हैं कि मानपुर में तीन से चार पीढ़ियों से हैंडलूम चल रहे हैं। पहले ज्यादातर हैंडलूम थे लेकिन अब उनकी जगह पावरलूम ने ली है। वर्ष 1957 के बाद पावरलूम का चलन बढ़ा है। पावरलूम, हैंडलुम से ज्यादा रफ्तार से चलता है जिस कारण उत्पादन अधिक होता है। यही वजह है कि लोग हैंडलूम की जगह पावरलूम को तरजीह देने लगे। वैसे, वे यह भी कहते हैं कि अभी भी यहां कई घरों में हैंडलूम है।
लघु उद्योग भारती के बिहार प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र सिंह बताते हैं कि यहां उत्पादित माल का 70 से 75 प्रतिशत हिस्सा पश्चिम बंगाल में जाता है। पश्चिम बंगाल के अलावा असम, ओडिशा और झारखंड में भी माल की सप्लाई की जाती है लेकिन इन राज्यों में बहुत कम मांग है। उन्होंने कहा कि आधुनिक नहीं बनने के कारण पहले जो व्यापारी हमसे माल खरीदते थे, वे अब क्वालिटी को लेकर माल खरीद नहीं पा रहे हैं।
सिंह यह भी बताते हैं कि बैंकों के ऋण देने में आने वाली समस्या के कारण भी यहां के लोग अपने मशीनों को बदल नहीं पा रहे हैं। इसके अलावे प्रदूषण की समसया भी हाल के दिनों में सामने आई है। वे बताते हैं कि धागों की रंगाई के लिए पानी में रसायनिक पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे फिर नाली में बहाया जाता हे, जिसे प्रदूषण का हवाला देकर रोक लगा दिया गया।
इस व्यवसाय ये जुड़े प्रकाश पटवा बताते हैं कि भारत के दूसरे हिस्से में जो पावरलूम चलते हैं वे अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हैं। जिस कारण वे फूल-फल रहे हैं लेकिन मानपुर पटवा टोली में आधुनिकता की हवा अब तक नहीं चली है। राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश सहित दक्षिण भारतीय राज्यों में चल रहे पावरलूम अत्याधुनिक तकनीक से लैस हैं लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है।
वे बताते हैं कि यहां बनने वाला लाल रंग का गमछा आदिवासियों में काफी लोकप्रिय है इसलिए बंगाल, ओडिशा और असम के आदिवासियों में इसकी खूब मांग रहती है। पावरलूम मालिकों की मानें तो ऐसा गमछा दूसरी जगहों पर नहीं बनता है।
उल्लेखनीय है कि मानपुर पटवा टोली की पहचान केवल पावरलूम के कारण ही नहीं है। आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल होने वाले छात्रों के गांव के लिए भी मानपुर जाना जाता है। मानपुर पटवा टोली की पहचान आईआईटियंस गांव के रूप में होती है। यहां करीब 250 घरों में इंजीनियर हैं।
–आईएएनएस
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