जबलपुर. शहर के साथ प्रदेश में सिकलसेल के नाम पर गलत दवाईयों की खरीदी हो पाती इससे पहले ही इस घोटाले को विराम दे दिया गया हैं. बताया जा रहा हैं दवा घोटाला कि प्रदेश के कुछ अधिकारियों ने आपदा में अवसर तलाशते हुए जिस दवा की टैबलेट मात्र 40 रुपए में बाजार में उपलब्ध थी उसकी टेबलेट न लेकर 736 रुपए में इसी उत्पाद के सिरप की खरीदी की तैयारी कर ली थी.
गनीमत रही कि स्वास्थ्य महकमे की इस पर नजर पड़ गई और प्रदेश में बड़ा घोटाला होने से बच गया. मामला मध्यप्रदेश में आदिवासी बच्चों के बीच तेजी से फैली रही सिकल सेल बीमारी से जुड़ा है. इसके इलाज के लिए अभी 40 रुपए की सस्ती हाइड्रोक्सी यूरिया टैबलेट दी जा रही है. दवा कॉरपोरेशन के कुछ अधिकारियों और फार्मा कंपनियों ने 736 रुपए की महंगी सिरप का टेंडर पास करवाने की साजिश रची थी.
इस सिरप की कीमत टैबलेट से 16 गुना ज्यादा है. तीन बार टेंडर तक जारी हो गए, लेकिन गनीमत रही कि घोटाला नहीं हो पाया. यह जानकारी मिलने पर शहर के साथ प्रदेश भर के गौसेवकों ने पुन: मांग की हैं कि जब बच्चों की दवा के मामले में प्रदेश सरकार इतनी संवेदनशील हैं तो मूक गौमाता को जिन दवाईयों की आपूर्ति की जा रही हैं उनमें क्यों नहीं हैं.
गौसेवकों, गौपालकों सहित गौशालाओं से जुड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि शहर के साथ प्रदेश भर में अब भी ऐसी दवा कंपनियों की अमानक दवाओं की खरीदी कर आपूर्ति की जा रही हैं जिनसे खरीदी बंद कर उन्हें कथित तौर पर ब्लैक लिस्टेड किया जाना था. गौसेवकों का कहना हैं कि जिस तरह की मुस्तैदी प्रदेश शासन ने सिकलसेल की दवाओं में दिखाई हैं उसी तरह की मुस्तैदी यदि गौमाता के लिए आपूर्ति हो रही दवाओं में दिखाई जाए तो गौवंशीय पशुओं में लगातार बढ़ती मृत्युदर पर भी विराम लग सकेगा.
इस तरह हुआ घोटाले का पर्दाफाश?
दवा कॉरपोरेशन के अधिकारियों ने दावा किया कि छोटे बच्चों को सिरप देना टैबलेट से ज्यादा सुविधाजनक होगा. जब यह यह टेंडर बोर्ड के पास गया तो इसमें दवा की कीमत 22 करोड़ रुपए आंकी गई. जांच के दौरान अधिकारियों के गोलमोल जवाबों से यह मामला उजागर हो गया. स्वास्थ्य विभाग ने गंभीरता दिखाते हुए इस टेंडर को तुरंत खारिज कर दिया. यह पूरा मामला फार्मा कंपनी प्योर एंड क्योर प्राइवेट लिमिटेड और दिल्ली की अकम्स कंपनी के गठजोड़ का था. दवा कॉरपोरेशन के अधिकारियों ने तीन बार टेंडर निकालकर यह साबित करने की कोशिश की कि बीमारी के इलाज के लिए सिरप ही एकमात्र विकल्प है. हालांकि, सच्चाई सामने आते ही यह साजिश नाकाम हो गई.
3 साल पहले सुर्खियों में आया था मामला
गौसेवकों, गौपालकों सहित गौशालाओं से जुड़ी संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि करीब 3 वर्ष पूर्व गौवंशीय पशुओं के लिए प्रदेश में शासन के माध्यम बकायदा टैंडर के जरिए ऐसे दवा निर्माताओं की दवा आपूर्ति की जा रही है जो न तो दवाईयों की स्पेलिंग जानते हैं न हीं कंटेंट की मात्रा. प्रदेश के वेटरनरी चिकित्सकों की मानें तो इसके चलते गौशालाओं के साथ ग्रामीण क्षेत्रों के पशु उपचार मिलने के बावजूद गुणवत्ता विहीन दवाओं की वजह से बेमौत मारे जा रहे हैं लेकिन गौवंशीय पशु मृत्यु दर के बढ़ते आंकड़ों की लगातार गणना न हो पाने के चलते पशुओं की बढ़ती मृत्यु दर के आंकड़े किसी के सामने नहीं आ पा रहे हैं.
सूत्रों के अनुसार इस मामले में सबसे हैरानी वाली बात यह है कि जिन कंपनियों की गुणवत्ता विहीन दवाइयां गौवंशीय पशुओं को सरकारी तंत्र मुहैया करा रहा है उनमें से अधिकांश कंपनियां माननीयों की है या फिर माननीयों के प्रश्रय से चल रही हैं. इस मामले में सबसे बड़ी हैरानी की बात यह रही कि मामला प्रकाश में आने बाद उक्त त्रुटि को महज लिपिकीय त्रुटि बताते हुए लीपापोती कर दी गई.