नई दिल्ली, 12 मार्च (आईएएनएस)। विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों में राज्यपाल व राज्य सरकार के बीच संबंध एक नए पैटर्न के रूप में विकसित हो रही है। हाल ही में घटनाओं का एक सिलसिला सामने आया। राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देने में देरी, विधेयकों को लौटाना, राज्य सरकार की आलोचना करना आदि। राज्यपालों और राज्य सरकारों ने सार्वजनिक रूप से अपने मतभेद भी व्यक्त किए।
28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच संवाद का स्तर गिरना नहीं चाहिए, यह देश के संवैधानिक मूल्यों और मामलों के कार्यान्वयन को खतरे में डाल सकता है।
कोर्ट जोर देकर कहा कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह के अनुसार बजट सत्र के लिए सदन को बुलाने के संवैधानिक दायित्व का पालन करना होगा।
राज्य में बजट सत्र बुलाने को लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के बीच टकराव का फैसला करने के लिए शीर्ष अदालत से गुहार लगाई गई थी।
अनुच्छेद 200 के अनुसार, जब किसी राज्य की विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उसके पास चार विकल्प होते हैं- (अ) वह विधेयक पर सहमति देता है, (ब) वह अनुमति रोक लेता है, (स) वह विधेयक को उसके लिए सुरक्षित रखता है राष्ट्रपति के विचार के लिए, या (डी) वह विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधायिका को लौटाता है।
पहला परंतुक कहता है कि जैसे ही विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, वह विधेयक को विधायिका को वापस कर सकता है (यदि यह धन विधेयक नहीं है) और विधायिका से इस पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करता है। राज्यपाल जैसा उचित समझे संशोधन या परिवर्तन करने की अनुशंसा भी कर सकते हैं। यदि इस तरह के पुनर्विचार पर, विधेयक संशोधनों के साथ या बिना संशोधन के फिर से पारित किया जाता है, और राज्यपाल को सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे अपनी सहमति देनी होगी।
इसका अर्थ है कि राज्यपाल को विधायी प्रक्रिया के उपरोक्त विकल्पों में से एक का प्रयोग करना चाहिए और देरी के मामले में, संवैधानिक योजना बाधित हो जाती है।
संविधान के अनुच्छेद 174, शीर्ष अदालत के निर्णयों की एक श्रृंखला के साथ यह निर्धारित किया गया है कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना चाहिए। पंजाब सरकार-राज्यपाल विवाद में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि सदन या राज्य के विधानमंडल के प्रत्येक सदन को बुलाने के लिए राज्यपाल को जो अधिकार सौंपा गया है, उसका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह व सहायता पर किया जाना है।
पीठ ने कहा था, राज्यपाल मंत्रिपरिषद द्वारा उन्हें दी गई सलाह से स्पष्ट रूप से बंधे हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974) मामले में राज्यपाल की शक्तियों और कार्यों की जांच की थी। शीर्ष अदालत ने माना था कि राज्यपाल केवल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य कर सकता है और कार्यकारी शक्तियां, जो निर्वाचित सरकार में निहित हैं, राज्यपाल द्वारा प्रयोग नहीं की जा सकती।
नबाम रेबिया बनाम डिप्टी स्पीकर (2016) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि राज्यपाल केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कार्य कर सकता है।
जनवरी 2013 में, न्यायमूर्ति आर.ए. मेहता को राज्यपाल कमला बेनीवाल द्वारा गुजरात लोकायुक्त के रूप में, शीर्ष अदालत ने कहा था, यह स्पष्ट है कि राज्यपाल को अनुच्छेद 361 (1) के तहत पूर्ण प्रतिरक्षा प्राप्त है और इसके तहत, उनके कार्यों को इस कारण से चुनौती नहीं दी जा सकती है कि राज्यपाल केवल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो लोकतंत्र संकट में पड़ जाएगा।
पंजाब सरकार-गवर्नर विवाद मे ंशीर्ष अदालत ने कहा कि एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक मतभेद स्वीकार्य हैं और इस पर संयम और परिपक्वता की भावना के साथ काम किया जाना चाहिए।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस बात पर जोर दिया कि जब तक इन सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा जाएगा, तब तक संवैधानिक मूल्यों का प्रभावी कार्यान्वयन खतरे में पड़ सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि हालांकि वह बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के महत्व से वाकिफ है, लेकिन इस बात पर जोर देना जरूरी है कि एक संवैधानिक विमर्श मर्यादा और परिपक्व राजकीय कौशल के साथ आयोजित किया जाना चाहिए।
इस महीने की शुरुआत में, तेलंगाना सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन को राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी।
–आईएएनएस
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