न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति एक विवादास्पद मुद्दा है। वर्तमान प्रक्रिया में प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के परामर्श के बाद की जाएगी।
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की राय सरकार के लिए बाध्यकारी है। मुख्य न्यायाधीश कम से कम चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के कॉलेजियम के साथ परामर्श के बाद अपनी राय देंगे। कॉलेजियम के अगर दो न्ययाधीश भी प्रतिकूल राय देते हैं, तो सीजेआई को सरकार को सिफारिश नहीं भेजनी चाहिए।
इसलिए यह कहना है गलत है कि बगैर किसी जवाबदेही के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम को पूर्ण शक्ति प्राप्त है। इसके लिए एक तय प्रक्रिया है। इसके माध्यम से नाम पहले संबंधित हाईकोर्ट के कॉलेजियम को भेजे जाते हैं। वहां परामर्श और विचार-विमर्श के बाद नाम सुप्रीम कोर्ट को भेजे जाते हैं।
उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम विचार-विमर्श करता है और आम सहमति होने पर ही न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम द्वारा नाम की सिफारिश की जाती है। इसके अलावा सबको यह पता होना चाहिए कि हमारा संविधान विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का प्रावधान करता है।
यह प्रणाली एक दूसरे पर नियंत्रण और संतुलन भी प्रदान करती है शक्ति का कोई कठोर पृथक्करण नहीं है। इसलिए यह कहना गलत है कि कॉलेजियम की कोई जवाबदेही नहीं है।
वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली तीन ऐतिहासिक निर्णयों से असितत्व में आई है।
सबसे पहले एसपी गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति और अन्य एआईआर 1982 एससी149 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने कहा कि न्यायिक नियुक्तियों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशें बाध्यकारी होंगी, हालांकि ठोस कारणों से इसमें बदलाव से इनकार किया जा सकता।
इसने कई मायनों में न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्रधानता दी। दूसरा, मौजूदा व्यवस्था को पूर्व सीजेआई पी.एन. 1993 में प्रस्तुत किया। एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1993) में शीर्ष अदालत के नौ न्यायाधीशों ने फस्र्ट जज केस के अपने फैसले को उलट दिया और कॉलेजियम सिस्टम विकसित किया।
न्यायालय ने माना कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में सीजेआई की प्राथमिक भूमिका होती है और उसके परामर्श का अर्थ सहमति होता है। कॉलेजियम प्रणाली के विकास का अंतर्निहित सिद्धांत यह था कि यह एक व्यक्तिगत राय के बजाय न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक राय को दर्शाता है।
तीसरे मामले में शीर्ष अदालत ने न्यायिक नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका पर न्यायपालिका के वर्चस्व को दोहराया और कॉलेजियम को पांच सदस्यीय पैनल के रूप में विस्तार दिया।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी), 2014 की शक्तियों का निर्णय करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका की और जांच की गई और विस्तार से चर्चा की गई।
सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम प्रणाली को दोहराया और 99वें संविधान संशोधन अधिनियम के साथ एनजेएसी अधिनियम को 4:1 से रद्द कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि शीर्ष अदालत ने पारस्परिकता की वैध शक्ति पर चर्चा की। यानी जब प्राप्तकर्ता देने वाले के प्रति ऋणी महसूस करता है और ऋण को अदा करने के लिए मजबूर महसूस करता है, तो अक्सर वह बेहतर फैसला नहीं कर पाता।
इसे ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने माना और समर्थन किया कि राजनीतिक-कार्यकारी की, जहां तक संभव हो, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के नियुक्ति में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। पारस्परिकता, और राजनीतिक-कार्यकारी को वापस भुगतान की भावना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए विनाशकारी होगी।
वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली ने हर संकट का सामना किया है और लगभग 30 वर्षों की अवधि में समय की कसौटी पर खरी उतरी है। निर्विवाद रूप से न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की न्यूनतम भूमिका होने के ठोस कारण हैं। इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
नियुक्ति प्रक्रिया में अपारदर्शिता ने पूरी प्रक्रिया के बारे में अनुचित संदेह पैदा किया है। सार्वजनिक डोमेन में जानकारी की कमी चिंता का कारण बनी हुई है और आगे चलकर भाई-भतीजावाद और पक्षपात की अटकलों को जन्म देती है, जो न्यायिक अधिकारियों के मनोबल को प्रभावित करती है और अंतत: वादियों को प्रभावित करती है।
सार्वजनिक क्षेत्र में पारदर्शिता और सूचना का प्रवाह न केवल भाई-भतीजावाद और पक्षपात की सभी अटकलों को समाप्त करेगा, बल्कि देश भर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में योग्यता-आधारित ²ष्टिकोण को और बढ़ावा देगा।
सूचना के प्रवाह के लिए एक सक्षम तंत्र सुनिश्चित करेगा कि सही उम्मीदवार की अनदेखी न हो। विशेष रूप से अदालतों में प्रौद्योगिकी के आगमन के साथ नए तंत्र को अपनाने और पारदर्शिता लाने से पूरी प्रणाली में विश्वास को मजबूत करने में मदद मिलेगी।
कुल मिलाकर न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की देखरेख में एक विस्तृत और थकाऊ प्रक्रिया है।
लेकिन यह प्रणाली अपनी कमियों के बावजूद मजबूत और अकाट्य कारणों पर आधारित है। नियुक्तियों में ठहराव बड़े पैमाने पर समाज के लिए अधिक हानिकारक है, क्योंकि अदालतों में रिक्तियां बढ़ रही हैं जिससे जनता को न्याया देने में अत्यधिक देरी हो रही है।
–आईएएनएस
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