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कश्मीर पर लिखने का गजब है आकर्षण : संदीप बामजई

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March 27, 2023
in राष्ट्रीय
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कश्मीर पर लिखने का गजब है आकर्षण : संदीप बामजई
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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

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बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

सीबीटी

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

सीबीटी

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

सीबीटी

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नई दिल्ली, 27 मार्च (आईएएनएस)। जब कश्मीर पर लिखने की बात आती है तो इसमें भावनात्मक पहलू शामिल होता है। ऐसा सिर्फ इस वजह से नहीं है कि हमारा जन्म वहां हुआ है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय योगदान देने वाले पंडित समुदाय को घाटी छोड़ने और अपने ही देश में प्रवासी होने को मजबूर होना पड़ा है। यह बात इंडो-एशियन न्यूज सर्विस (आईएएनएस) के एमडी व एडिटर-इन-चीफ संदीप बामजई ने कही।

उनकी नवीनतम पुस्तक, गिल्डेड केज: इयर्स दैट मेड एंड अनमेड कश्मीर (रूपा) कश्मीर की राजनीति में शेख अब्दुल्ला के उभरने से लेकर उनकी गिरफ्तारी तक उनके नेतृत्व से कश्मीरी जनता के मोहभंग तक का इतिहास बताती है। इस पुस्तक में कश्मीर के प्रति जिन्ना के जुनून से लेकर जिन्ना के लिए शेख अब्दुल्ला की नफरत, जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति से लेकर महाराजा हरि सिंह की भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्र रहने की मंशा व बाद में कश्मीर के भारत में विलय को शामिल किया गया है।

बोनफायर ऑफ कश्मीरियत और प्रिंसेस्तान: हाउ नेहरू, पटेल एंड माउंटबेटन मेड इंडिया के बाद अपनी इस तीसरी पुस्तक के बारे में लेखक ने आईएएनएस को बताया कि उन्हें घाटी की वास्तविक कहानी लिखने की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि बहुत से लोग इतिहास में गहराई तक जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं।

उन्होंने कहा, एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपनी स्वतंत्रता और स्वतंत्रता संग्राम का पर्याप्त रूप से दस्तावेजीकरण नहीं किया, यही कारण है कि मैं लंबे समय से एक स्वतंत्रता अभिलेखागार की आवश्यकता पर बल दे रहा हूं। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों वीपी मेनन, केएन बामजई, द्वारका नाथ काचरू आदि ने भारत के एकीकरण व कश्मीर के भारत में विलय में अहम भूमिका निभाई। यह महत्वपूर्ण है कि असली कहानी लोगों के सामने आए, यही मुझे लिखने को प्रेरित करता है।

अर्थशास्त्र के छात्र बामजई, जिन्होंने इतिहास का औपचारिक अध्ययन नहीं किया, खुद को एक शौकिया इतिहासकार कहते हैं, जिन्होंने आधुनिक इतिहास के प्रति अपनी जिज्ञासा को विकसित किया है।

वह कहते हैं, मुझे लगता है कि एक पत्रकार के रूप में जिज्ञासा शायद एक उत्प्रेरक के रूप में काम कर रही है, मैंने खुद को इतिहास में डुबो दिया है।

गिल्डेड केज लिखते समय, लेखक 1931 से 1953 के बीच कश्मीर के कई नाटकीय व्यक्तित्वों को देखते हैं। वह उन्हें दो भागों में विभाजित करते हैं, नायक और खलनायक। उन्होंने कहा कि मैंने नायक और खलनायक के बीच संघर्ष में एक कथा का निर्माण करने की कोशिश की है।

कश्मीर में समकालीन स्थिति के बारे में बामजई कहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द करना राज्य के एकीकरण और गतिशीलता का पता लगाने वाला एक मौलिक उपाय रहा है। इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को दिया जाना चाहिए।

हालांकि, उन्हें लगता है कि जब तक घाटी में शांति बहाल नहीं हो जाती, तब तक पंडितों से अपने घर लौटने की उम्मीद करना अनुचित होगा। आप उनके लिए झेलम के बाईं या दाईं ओर एक यहूदी बस्ती नहीं बना सकते। समुदाय कभी भी इसका समर्थन नहीं करेगा। 30 साल हो गए हैं और लोग आगे बढ़ गए हैं। घाटी में पंडितों को अब भी निशाना बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा, कश्मीर से जो संदेश निकल रहा है, वह यह है कि आप पर्यटक के तौर पर यहां आ सकते हैं, लेकिन अगर आप गैर मुस्लिम हैं, तो वहां रहकर काम नहीं कर सकते।

कलिंगा बुक अवार्ड (प्रिंसेस्तान) विजेता लेखक, जिन्होंने 40 से अधिक वर्षों के लिए प्रमुख मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर काम किया है, स्वीकार करते हैं कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया घाटी से पंडितों के जबरन पलायन को स्वीकार करने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि कई लोग फिल्म द कश्मीर फाइल्स के बारे में बहुत हो-हल्ला कर रहे हैं, लेकिन उससे सच्चाई सामने आई है। ईमानदारी से कहूं, तो हर किसी ने इस समुदाय का साथ छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि मैं इस विषय पर लिखने के लिए फिर से विचार करता हूं।

उन्हें लगता है कि 2023 में बर्फ पिघलने के बाद, शायद मई की शुरुआत में या कर्नाटक में होने वाले चुनाव के साथ यहां भी चुनाव की उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने कहा, चुनाव में एक तरफ फारूक अब्दुल्ला हैं, दूसरी तरफ बीजेपी है और गुलाम नबी आजाद एक्स फैक्टर हैं।

बामजई पुस्तक के अगले भाग को लिखने पर विचार कर रहे हैं, जो 1953 से 1965 के बीच के वर्षों पर फोकस करेगा।

उन्होंने बताया कि वह अपना लेखन व्यापक शोध के साथ शुरू करते हैं, इसमें उनके परिवार द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कागजात भी शामिल हैं। बामजई जोर देकर कहते हैं कि वह अब भी पहले एक पत्रकार हैं, और हमेशा खबरों के दीवाने बने रहेंगे।

–आईएएनएस

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