नई दिल्ली, 11 जून (आईएएनएस)। एक नए अध्ययन के अनुसार, गर्भाशय कैंसर से पीड़ित मरीजों की लिंच सिंड्रोम नामक आनुवंशिक स्थिति की जांच ठीक से नहीं हो रही है। यह स्थिति मरीजों में गर्भाशय और आंतों के कैंसर का खतरा बढ़ाती हैं।
लिंच सिंड्रोम 300 में से 1 व्यक्ति को प्रभावित करता है, लेकिन केवल 5 प्रतिशत लोग ही इसके बारे में जागरूकता रखते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के शोधकर्ताओं का कहना है कि लिंच सिंड्रोम का पता चलना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे मरीज कैंसर के खतरे को कम करने के लिए कदम उठा सकते हैं। यह न केवल उनके स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, बल्कि इलाज का खर्च भी घटाता है।
बीएमजी ऑन्कोलॉजी जर्नल में छपे रिसर्च के मुताबिक, 2022 से 2023 के बीच यूके और आयरलैंड में गर्भाशय कैंसर के 2,500 से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया गया।
शोध में सामने आया कि 91 प्रतिशत ट्यूमर की लिंच सिंड्रोम के लक्षणों के लिए जांच तो की गई, लेकिन जांच के नतीजे अक्सर डॉक्टरों की पूरी टीम को नहीं बताए गए। इसका मतलब है कि आगे की जेनेटिक काउंसलिंग (आनुवंशिक परामर्श) और ब्लड टेस्ट (रक्त जांच) की व्यवस्था नहीं हो पाई। जिन मरीजों को जेनेटिक काउंसलिंग की ज़रूरत थी, उनमें से दो-तिहाई को ही इसके लिए भेजा गया। लेकिन लंबी प्रतीक्षा सूची के कारण केवल 48 प्रतिशत मरीजों की ही जांच हो पाई।
जांच में इस कमी के कारण लिंच सिंड्रोम वाले कई गर्भाशय कैंसर के मरीजों का पता नहीं चल पाता, जिससे उनमें आंत के कैंसर का खतरा बना रहता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबर्ग के सेंटर फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ के क्लिनिकल लेक्चरर डॉ. नील रयान ने कहा, “साफ-साफ गाइडलाइन (दिशानिर्देश) और ट्यूमर जांच की अच्छी दर के बावजूद, लिंच सिंड्रोम वाली बहुत सी महिलाओं का अब भी पता नहीं चल पा रहा है क्योंकि उन्हें समय पर ब्लड टेस्ट के लिए नहीं भेजा जा रहा है। यह न केवल उनके लिए, बल्कि उनके रिश्तेदारों के लिए भी खतरा है। ट्यूमर की जांच तभी किफायती है जब उससे बीमारी का पता चले। हमें जल्द से जल्द इस जांच को और लोगों तक पहुंचाना होगा।”
शोधकर्ताओं का कहना है कि शुरुआती पहचान से ऐसी दवाएं (जैसे एस्पिरिन) और नियमित जांच (जैसे कोलोनोस्कोपी) या हिस्टेरेक्टॉमी जैसे उपाय किए जा सकते हैं, जो भविष्य में कैंसर के खतरे को कम करते हैं।
–आईएएनएस
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