रोजका मेव (मेवात), 6 अगस्त (आईएएनएस)। हरियाणा के मेवात के एक गांव रोजका मेव के दो सौ पशु व्यापारी भैंसों की बिक्री और खरीद की अपनी पारंपरिक आजीविका को छोड़ने की कगार पर हैं। उनका दावा है कि कुछ ही दिन पहले नूंह जिले में हुई भीषण सांप्रदायिक झड़पों के बाद यह और अधिक खतरनाक हो सकता है।
एक पशु व्यापारी ने नाम न छापने की शर्त पर आईएएनएस को बताया, “गौ रक्षा दल (जीआरडी) द्वारा हमारे खिलाफ की जा रही मारपीट, जबरन वसूली की कोशिशों और मवेशी ‘बचाव’ के कारण यह बहुत खतरनाक हो गया है।”
यहां के सभी ट्रांसपोर्टरों का कहना है कि कुछ साल पहले जबरन वसूली शुरू होने के बाद से मवेशियों को वैध तरीके से दूसरे राज्यों में खरीदारों या विक्रेताओं के पास ले जाना बहुत महंगा हो गया है।
उनका कहना है कि पुलिसकर्मी 2,000 रुपये से 3,000 रुपये रिश्वत लेते हैं, जबकि निगरानी समूह मवेशियों को ले जाने वाले प्रति वाहन से 3000 रुपये से 4,000 रुपये की मांग करते हैं। इससे प्रत्येक यात्रा की लागत 6,000 रुपये से 7,000 रुपये तक बढ़ जाती है। इसके अलावा, मवेशियों को ले जाना अब उनके जीवन के लिए भी जोखिम पैदा करता है।
निगरानी समूहों द्वारा अवैध दंड, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न ने पूरे मेवात क्षेत्र में भय का माहौल पैदा कर दिया है, जो हरियाणा से राजस्थान तक फैला हुआ है। जीआरडी का कहना है कि वे गायों को वध से बचाना चाहते हैं, क्योंकि हिंदू गायों का सम्मान करते हैं। विडंबना यह है कि रोजका मेव में अधिकांश पशु व्यापार भैंसों में होता है।
यहां के निवासी ज्यादातर मेवाती मुसलमान हैं, और उन्हें लगता है कि जीआरडी उन्हें उनकी पहचान के कारण निशाना बनाते हैं, इसलिए नहीं कि वे गायों से प्यार करते हैं।
उक्त पशु व्यापारी ने कहा, “हमें लगता है कि यह हमारे खिलाफ भेदभाव है। जीआरडी हमलों से ऐसा लगता है जैसे वे हमें निशाना बना रहे हैं।”
पशु व्यापारी मवेशियों को खरीदने के लिए ऋण लेते हैं और उन्हें लाभ के लिए बेचते हैं। ऋण वापस नहीं चुकाया जाता है, बल्कि पीढ़ियों तक आगे बढ़ाया जाता है, और उस पर कोई ब्याज नहीं या बहुत कम ब्याज होता है। व्यापारियों के लिए भैंसें उनकी एकमात्र बिक्री योग्य संपत्ति हैं जिनसे उनके स्वास्थ्य के आधार पर 35,000 रुपये से 50,000 रुपये तक मिल सकते हैं।
जीआरडी का प्रभाव पूरे मेवात में महसूस किया जा रहा है, जहां 10 लाख लोग रहते हैं। इनमें से 70 प्रतिशत मुसलमान हैं। यहां के कई गांव पूरी तरह से मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर निर्भर हैं क्योंकि मुसलमान भूमिहीन हैं और खेत उतने उपजाऊ नहीं हैं। इनके पुरखे 150 साल या उससे भी पहले से इसी पर निर्भर हैं।
रईस ने कहा, “मैं 30 साल का हूं और मेरे पिता 80 साल के हैं, लेकिन उनके दादा ने भी यह काम किया था। जब ब्रिटिश राज के दौरान और आजादी के बाद राजा और रानियों ने भारत पर शासन किया, तब हम व्यापारी थे। अब हमें सड़क पर अपनी जान का डर है।”
जीआरडी ने मेवातियों पर गायों को वध के लिए बेचने और भैंसों को “क्रूरतापूर्वक” ले जाने का आरोप लगाया है। व्यापारियों का कहना है कि गाय का व्यापार बेहद कम रह गया है। इसकी जगह भैंस व्यापार को अपनाने का भी कोई फायदा नहीं हुआ है। जानवरों के प्रति क्रूरता को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों के तहत भैंसों को जब्त किया जा रहा है।
मोहम्मद मंज़ूर ने कहा, “जीआरडी हमारी भैंसें खुद बेचना चाहते हैं। इसलिए वे हमें क्रूर कहते हैं। सैकड़ों गायों को तंग गौशालाओं में ठूंस देना कहां की दयालुता है, जहां उन्हें ठीक से खाना नहीं दिया जाता है।”
हरियाणा के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, “यहां तक कि पुलिस भी क्रूरता कानूनों को अच्छी तरह से नहीं समझती है। हम जीआरडी से कहते हैं कि वे सड़कों आदि पर अपने अवरोधक न लगाएं। हालांकि, तस्कर भी नाके तोड़ते हैं, आप पर गोलियां चलाते हैं।”
पुलिस, गोरक्षक समूहों और यहां तक कि यातायात पुलिसकर्मियों द्वारा दिल्ली और उसके आसपास सड़कों पर मवेशी परिवहनकर्ताओं को रोक दिया जाता है। जीआरडी स्व-निर्मित पहचान पत्र रखने तक की हद तक चले जाते हैं, जो भोले-भाले ग्रामीण मेवाती व्यापारियों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनके पास उनके ट्रकों का निरीक्षण करने का अधिकार है। लाठियाँ और अन्य हथियार वैसे भी अधिकांश लोगों को खामोश कर देते हैं।
ज़ाखिर क़ुरैशी ने कहा, “वे हमें जाने देने के लिए पैसे की मांग करते हैं। अगर हम मना करते हैं, तो वे हमें बुरी तरह पीटते हैं और हमारे मवेशी ले जाते हैं।”
क़ुरैशी ने कहा कि अगर पुलिस उन्हें पकड़ लेती है, तो वे मवेशियों को पीपुल्स फॉर एनिमल्स (पीएफए) द्वारा संचालित पशु अस्पताल में ले जाते हैं।
आमतौर पर ऐसे मवेशियों को अदालत के आदेश के बाद छोड़ा जा सकता है। मोहम्मद मंज़ूर ने कहा, “भले ही हमें अदालत के आदेश भी मिल जाएं, ये आश्रय स्थल हमारे मवेशियों को वापस करने से इनकार कर देते हैं। या वे हमारे मवेशियों को खिलाने और इलाज की लागत के रूप में इतने पैसे की मांग करते हैं कि हमें उन्हें छोड़ना पड़ता है।”
उन्होंने कहा, “यह भेदभाव है… हो सकता है कि जीआरडी के लोग खुद ही मवेशी बेचते और खरीदते हों।”
यूनुस खान ने कहा, “हमारी रोजी-रोटी मवेशियों के व्यापार पर निर्भर है। हम पूरे उत्तर भारत के गांवों से मवेशी खरीदते हैं। किसान उन्हें मंडियों में या दूसरे किसानों तक पहुंचाने के लिए हमें बेचते हैं। निगरानी समूहों ने हमारी कमाई का एकमात्र स्रोत छीन लिया है। हम इस व्यापार से बाहर निकलना चाहते हैं… अब हमारे बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी नहीं निकलता।”
–आईएएनएस
एकेजे