नई दिल्ली, 14 अक्टूबर (आईएएनएस)। एक शोध में कहा गया है कि अमेरिका में चार में से एक यानी 25 प्रतिशत वयस्कों को लगता है कि उन्हें हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर हो सकता है, लेकिन उसका पता नहीं चल सका है।
आपको बता दें कि हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर को एडीएचडी के नाम से भी जाना जाता है। इसे आमतौर पर बचपन की बीमारी माना जाता है।
अमेरिका के एक हजार वयस्कों के राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित अध्ययन से पता चला है कि सोशल मीडिया वीडियो ने वयस्कों को यह एहसास दिलाने में मदद की कि ध्यान, एकाग्रता और बेचैनी के साथ उनका संघर्ष, वास्तव में अनियंत्रित एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर) हो सकता हैं।
शोध में शामिल हुए लोगों में से केवल 13 प्रतिशत ने अपने डॉक्टर के साथ अपनी परेशानी को लेकर बात की।
ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के मनोचिकित्सा और व्यावहारिक स्वास्थ्य विभाग में नैदानिक सहायक प्रोफेसर और मनोवैज्ञानिक जस्टिन बार्टेरियन ने कहा, ”चिंता, अवसाद और एडीएचडी ये सभी चीजें बहुत हद तक एक जैसी लग सकती हैं, लेकिन गलत उपचार से व्यक्ति को आराम मिलने की बजाय चीजें और खराब हो सकती हैं।”
बार्टेरियन ने कहा, ”अनुमान है कि 18 से 44 वर्ष की आयु के 4.4 प्रतिशत लोगों को एडीएचडी है और कुछ लोगों में इस बीमारी का तब तक पता नहीं लगाया जा सकता जब तक कि वे बड़े नहीं हो जाते।”
उन्होंने कहा, ”एडीएचडी के प्रति जागरूकता बढ़ रही है कि यह वयस्कता में भी प्रभाव डाल सकता है। जब बच्चों में एडीएचडी का पता चलता है, तो कई माता-पिता को एहसास होता है कि वे खुद भी इसी समस्या से गुजर रहे हैं, क्योंकि यह एक जेनेटिक डिसऑर्डर है।”
इसके अलावा, पुरानी पीढ़ियों की तुलना में युवा वयस्कों को यह मानने की संभावना अधिक थी कि उन्हें अनियंत्रित एडीएचडी हो सकता है।
बार्टेरियन ने कहा कि सोशल मीडिया वीडियो शिक्षा देने और जागरूकता लाने में मदद कर सकते हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक या चिकित्सक से संपर्क करके उचित समय पर इसका इलाज किया जा सकता है।
–आईएएनएस
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