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Home ताज़ा समाचार

झारखंड में 5 साल में 462 लोगों की मौत के बाद उठी हाथी कॉरिडोर की मांग

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March 19, 2023
in ताज़ा समाचार
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झारखंड में 5 साल में 462 लोगों की मौत के बाद उठी हाथी कॉरिडोर की मांग
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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

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फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

एसएनसी/एसकेपी

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

एसएनसी/एसकेपी

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

एसएनसी/एसकेपी

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

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रांची, 19 मार्च (आईएएनएस)। गजराज यानी हाथी झारखंड का राजकीय पशु है, लेकिन इनका गुस्सा राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसा कोई हफ्ता नहीं गुजरता जब राज्य के किसी न किसी इलाके से हाथियों के हमले की खबर न आती हो। पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं।

मंत्रालय ने हाल में एक आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया था कि झारखंड में 2017 से पांच वर्षों में हाथियों के हमले में 462 लोग मारे गए हैं। लेकिन यह संघर्ष एकतरफा नहीं है। इस दौरान तकरीबन 50 हाथियों की भी अलग-अलग वजहों से मौत हुई है। वन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पांच साल में सिर्फ बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथी मारे गए। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने और तस्करों की वजह से भी हाथियों की मौत की घटनाएं हुई हैं।

फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथी के हमले में 16 लोगों की जान चली गई। वन विभाग ने इसके लिए झुंड से बिछड़े एक हाथी को जिम्मेदार माना। यह गुस्साया गजराज पांच जिलों हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में घूम-घूम कर तबाही मचाता रहा। इसने फसलें रौंदी, एक दर्जन जगहों पर दीवारें गिराईं और कई पेड़ उखाड़ डाले।

इस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों को रौंद डाला, जिनमें से 16 लोगों की मौत हो गई। आलम यह कि इसके खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी।

राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य जीव) शशिकर सामंता ने बताया कि वन संरक्षक की अध्यक्षता में चार मंडलों में वन अधिकारियों की एक समिति बनाई गई है, जो इस बात की जांच कर रही है कि झुंड से बिछड़ा एक हाथी अचानक इतना उग्र क्यों हो गया?

दरअसल हाथियों के गुस्से की वजहें जानने के लिए पिछले तीन-चार दशकों में कई अध्ययन और शोध हुए हैं और इन सभी के निष्कर्ष में यह बात समान रूप से सामने आई है कि मानवीय गतिविधियों ने हाथियों के प्राकृतिक अधिवास और उनके आने-जाने के परंपरागत रास्तों यानी कॉरिडोर को लगातार डिस्टर्ब किया है।

वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) ने साल 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें बताया गया था कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल का 21 हजार वर्ग किलोमीटर इलाका हाथियों का आवास है। मानव-हाथी संघर्ष के चलते देशभर में जितने लोगों की जान जाती है उनमें से 45 फीसदी इसी इलाके से हैं।

आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक देश के जंगली हाथियों की कुल संख्या का 11 प्रतिशत हाथी झारखंड में हैं। हालांकि चिंता की बात यह है कि यहां हाथियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज हो रही है। राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की गिनती हुई थी और इनकी संख्या 555 बताई गई थी, जबकि इसके पांच साल पहले हुई गणना में इनकी संख्या 688 थी।

दूसरी तरफ हाथियों के हमले में होने वाली मौतों का सिलसिला भी नहीं थम रहा। 22-23 में अब तक हाथियों के हमले में 100 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। 21-22 में राज्य में 133 लोगों की जान गई थी, तो वर्ष 20-21 में 84 लोग मारे गए थे। जाहिर है, हाथी-मानव संघर्ष में नुकसान दोतरफा हो रहा है।

वन्य एवं पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि एक जंगल से दूसरे जंगल हाथियों के सुरक्षित आने-जाने के लिए कॉरिडोर विकसित किए जाने चाहिए। कॉरिडोर ऐसे हों, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों। देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं। इनमें से झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्न्ति हैं। इनमें 14 झारखंड में हैं, लेकिन एक भी अधिसूचित नहीं है। ऐसे में हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के लिए भारत सरकार की संचालन समिति के पूर्व सदस्य डीएस श्रीवास्तव ने पिछले दिनों बताया था कि अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग और माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रहवासों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। झारखंड में सारंडा जंगलों से ओड़ीशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट हो गए।

इंडियन फॉरेस्ट सर्विस के 1979 बैच के सेवानिवृत्त अफसर नरेंद्र मिश्रा की मानें तो झारखंड में जंगलों के आसपास उत्खनन, जंगल विस्फोट, नक्सल गतिविधियां, उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान और वन तस्करों की करतूतों के कारण हाथियों का प्राकृतिक निवास लगातार प्रभावित हुआ है। मसलन, राज्य के कोल्हान प्रमंडल के जंगल हाथियों के प्राकृतिक आवास के लिए काफी मशहूर थे, लेकिन पिछले तीन दशक में उनकी आश्रयस्थली को काफी क्षति पहुंची है। खनन में बढ़ोतरी हुई।

सड़क एवं रेलवे लाइन का विस्तार हुआ। आबादी भी बढ़ी। लेकिन इन सारी गतिविधियों के दौरान हाथियों के कॉरिडोर का ध्यान नहीं रखा गया। नतीजा यह कि हाथी जब जंगल से बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है। उनके खाने के साधन जंगल में कम होते जा रहे हैं। जंगल भी सिकुड़ते जा रहे हैं, लोग भी हाथी को देखते उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं।

झारखंड विधानसभा के बीते साल के बजट सत्र में वन विभाग के प्रभारी मंत्री चंपई सोरेन ने हाथियों के उत्पात से जुड़े एक सवाल के जवाब में बताया था कि वर्ष 2021-22 में हाथियों द्वारा राज्य में जानमाल को नुकसान पहुंचाये जाने से जुड़े मामलों में वन विभाग ने एक करोड़ 19 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान किया है।

उन्होंने अपने जवाब में कहा था कि हाथियों और इंसानों के बीच द्वंद्व बढ़ने के कई कारण हैं। जनसंख्या बढ़ने के कारण वन्यजीव का प्रवास क्षेत्र प्रभावित हुआ है। गांवों में मादक पेय पदार्थ बनाए जाते हैं, जिसकी महक हाथियों को आकर्षित करती है। इस कारण भी हाथियों की आदतों और भ्रमण के मार्ग में बदलाव आया है।

हाथी-मानव संघर्ष को रोकने के लिए वन विभाग ने क्विक रिस्पांस टीम का गठन किया है। यह टीम लोगों को जागरूक करती है और वैज्ञानिक और पारंपरिक तरीके से हाथियों को वापस जंगल की ओर भेजने का प्रयास करती है। लेकिन, इन सबके बावजूद सच यही है कि झारखंड में हाथियों और मानवों के संघर्ष की घटनाओं में कोई कमी दर्ज नहीं की जा रही है।

–आईएएनएस

एसएनसी/एसकेपी

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