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झारखंड विधानसभा चुनाव : क्या भाजपा को मिलेगा आदिवासियों का साथ, या राह होगी मुश्किल?

by
October 20, 2024
in राष्ट्रीय
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झारखंड विधानसभा चुनाव : क्या भाजपा को मिलेगा आदिवासियों का साथ, या राह होगी मुश्किल?
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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

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भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

–आईएएनएस

पीएसके/एएस

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

–आईएएनएस

पीएसके/एएस

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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नई दिल्ली, 20 अक्टूबर (आईएएनएस)। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी तेज कर दी है। सभी दल सभी वर्ग के मतदाताओं को साधने में जुट गए हैं। झारखंड में आदिवासी समुदाय सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहा जाता है कि जिस दल के साथ आदिवासी हैं, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है।

ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

दूसरी तरफ, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आदिवासी समाज से आते हैं। जब वह जेल गए तो उनके समर्थकों का आरोप था कि भाजपा ने आदिवासी मुख्यमंत्री को साजिश के तहत फंसाकर जेल भेजा था। इस बात पर विपक्षियों पार्टियों ने भी मुखरता दिखाई थी। इसलिए भावनात्मक तौर पर आदिवासी समाज के लोग हेमंत सोरेन की पार्टी के साथ भी खड़े हो सकते हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गहरा असर है और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यह पार्टी आदिवासी वोट बैंक के लिए जानी जाती है।

लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

ज्ञात हो कि झारखंड की 81 में से 43 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों की आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। 43 में से 22 विधानसभा सीटें तो ऐसी हैं जहां आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। आदिवासी समाज के लोगों के लिए जल, जंगल, जमीन और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दे बहुत अहम रहे हैं। इसी को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ने इन मुद्दों को अपने चुनावी एजेंडे में शामिल किया है।

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ऐसे में हर किसी के जहन में यह सवाल है कि आदिवासी समाज के लोग किस दल को अपना आशीर्वाद देंगे। सवाल यह भी है कि क्या आदिवासी समाज के लोग भाजपा को अवसर देंगे या फिर उनकी राह मुश्किल करेंगे।

भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों दलों को आदिवासी समाज का साथ मिल सकता है। भाजपा कई बार आदिवासी समाज के लिए अपनी योजनाओं के माध्यम से उनके विकास की बात करती रही है। इसके अलावा, देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास और मुख्यमंत्री मोहन माझी जैसी हस्तियां आदिवासी समाज से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा आदिवासी समुदाय पर विशेष ध्यान दे रही है और अपनी पकड़ को लगातार मजबूत कर रही है।

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लेकिन, पिछले पांच सालों में झामुमो के कई कद्दावर नेता हेमंत सोरेन से अलग हो चुके हैं। इस लिस्ट में शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और ‘झारखंड टाइगर’ के नाम से मशहूर चंपई सोरेन भी शामिल हैं। दूसरी तरफ, आदिवासी समाज के कई बड़े चेहरे भाजपा में शामिल हुए हैं। इनमें कद्दावर नेता बाबूलाल मरांडी का भी नाम शामिल है। यह झामुमो के लिए पूरी तरह अनुकूल स्थिति नहीं है।

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