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पितृ पक्ष विशेष : पिहोवा में आज भी वंशावली के आधार पर होता है श्राद्ध, महाभारत से भी जुड़ा है किस्सा

देशबन्धु by देशबन्धु
September 10, 2025
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। हरियाणा के कुरुक्षेत्र के पिहोवा का सरस्वती तीर्थ एवं सन्निहित सरोवर भारतीय धर्म और आस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। यहां पर पितरों की शांति और उनकी मुक्ति के लिए पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।

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धार्मिक मान्यता है कि इस स्थान पर किए गए कर्मकांड से मृतात्माओं को मोक्ष प्राप्त होता है और वे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

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यहां के पुरोहितों के पास महाभारत काल से जुड़ी हुई वंशावलियां सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर वे पीढ़ियों से श्राद्ध कर्म करवाते आ रहे हैं।

महाभारत में उल्लेख है कि ‘पुण्यामाहु कुरुक्षेत्र कुरुक्षेत्रात्सरस्वती, सरस्वत्माश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथुदकम्’ अर्थात कुरुक्षेत्र नगरी पवित्र है, सरस्वती तीर्थ उससे भी पवित्र है और पृथूदक अर्थात वर्तमान पिहोवा इन सबमें सर्वश्रेष्ठ है।

वामन पुराण में कहा गया है कि गंगा, यमुना, नर्मदा और सिंधु चारों नदियों के स्नान का फल अकेले पिहोवा में ही प्राप्त हो जाता है।

माना जाता है कि सरस्वती नदी का जल पीने से मोक्ष मिलता है और यदि कोई व्यक्ति बारह माह तक इसका सेवन करता है तो उसे देवगुरु बृहस्पति जैसी विद्या और शक्ति प्राप्त होती है। इसी तीर्थ में राजा ययाति ने सौ यज्ञ किए थे। धार्मिक मान्यता यह भी है कि जो साधक यहां सरस्वती सरोवर के तट पर जप करते हुए देह त्याग करता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है।

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ऐसा कहा जाता है कि गंगा के जल में अस्थि प्रवाह से मुक्ति होती है और काशी में मृत्यु होने से मोक्ष प्राप्त होता है, किंतु पिहोवा तीर्थ की महत्ता इससे भी अधिक है। मान्यता है कि यहां जल, स्थल या आकाश किसी भी माध्यम से मृत्यु होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि इसे गंगा द्वार से भी अधिक पवित्र और प्रभावी तीर्थ माना गया है।

पुराणों के अनुसार, इस तीर्थ की रचना स्वयं प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के आरंभ में की थी। पृथुदक शब्द का संबंध महाराजा पृथु से जोड़ा जाता है, जिन्होंने अपने पिता का श्राद्ध यहीं किया था।

महाभारत के अनुसार, ब्रह्माजी ने पिहोवा की आठ कोस भूमि पर बैठकर सृष्टि की रचना की थी। गंगा पुत्र भीष्म पितामह की सद्गति भी यहीं पृथुदक में हुई थी।

महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर लाखों अकाल मृत्यु प्राप्त लोगों की आत्मा को लेकर चिंतित थे। उन्होंने जब यह चिंता श्रीकृष्ण को बताई, तब श्रीकृष्ण ने पिहोवा में सरस्वती तीर्थ पर दीपक जलाया। युधिष्ठिर ने उस दीपक में तेल अर्पित किया ताकि मृत आत्माओं की शांति हो सके। आज भी उस दीपक में तेल चढ़ाने की परंपरा जारी है और श्रद्धालु अकाल मृत्यु प्राप्त आत्माओं की मुक्ति के लिए तेल अर्पित करने आते हैं।

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पिहोवा का कार्तिकेय मंदिर भी प्रसिद्ध है। यहां की मान्यता है कि स्त्रियां इस मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकतीं। लोगों का मानना है कि यदि कोई स्त्री यहां प्रवेश करती है तो उसे सात जन्मों तक विधवा होना पड़ता है। एक कथा के अनुसार, जब कार्तिकेय ने क्रोधित होकर अपना मांस और रक्त अग्नि को अर्पित कर दिया, तब भगवान शंकर ने उन्हें पिहोवा जाने का आदेश दिया। वहां ऋषि-मुनियों ने उनके ज्वलंत शरीर पर सरसों का तेल अर्पित किया। उसी समय से यहां कार्तिकेय पिंडी रूप में विराजमान हैं और तेल चढ़ाने की परंपरा चल रही है।

लोग मानते हैं कि पिहोवा में प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु से उत्पन्न दोषों का निवारण होता है। यहां श्राद्ध और पिंडदान करने से मृतक को सद्गति मिलती है।

वामन पुराण के अनुसार, भगवान शंकर ने भी पिहोवा में स्नान किया था। यही कारण है कि आज भी देशभर से श्रद्धालु यहां आते हैं और पंडों तथा पुरोहितों की देखरेख में श्राद्ध कर्म संपन्न करते हैं।

–आईएएनएस

प्रतीक्षा/एबीएम

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