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Home ताज़ा समाचार

बर्थडे स्पेशल: विकेट के पीछे शानदार किरण मोरे, बल्ले के साथ तूफानी लांस क्लूजनर

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September 4, 2024
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

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किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

क्लूजनर ने अपने करियर में 49 टेस्ट खेले। वनडे में उनको बड़ी सफलता मिली। 171 वनडे मैचों में उन्होंने 41.10 की औसत और 89.91 की स्ट्राइक रेट से बैटिंग की। गेंदबाजी में उन्होंने 29.95 की औसत के साथ 192 विकेट लिए। संन्यास के बाद क्लूजनर ने कोचिंग में करियर को आगे बढ़ाया है।

–आईएएनएस

एएस/एफजेड

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नई दिल्ली, 4 सितंबर (आईएएनएस)। किरण मोरे का कद छोटा था लेकिन वह भारत के उन विकेटकीपरों में से थे जिन्होंने हमेशा चुनौती का मजा लिया। मोरे की जुझारू प्रवृत्ति ही उन्हें सबसे अलग बनाती है।

4 सितंबर 1962 को गुजरात के बड़ौदा में जन्मे किरण मोरे के लिए चंद्रकांत पंडित, सदानंद विश्वनाथ और अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी के बीच भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाना आसान नहीं था।

किरण मोरे ने 1980 में बड़ौदा के लिए अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेला था। कुछ अच्छे घरेलू सीजन के बाद, वह चयनकर्ताओं की नजर में आए। यह वह समय था जब भारतीय टीम में सैयद किरमानी जैसा दिग्गज विकेटकीपर था।

किरण मोरे को 1982-83 में किरमानी के सब्स्टीट्यूट के तौर पर वेस्टइंडीज दौरे पर मौका मिला। वह मैच नहीं खेल पाए, लेकिन सीखने के लिए काफी कुछ था। 1985-86 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर भी सैयद किरमानी के साथ रहते हुए अनुभव हासिल करने के बाद, किरण मोरे 1986 में इंग्लैंड के दौरे पर भारत के मुख्य विकेटकीपर बन चुके थे।

मोरे ने उस सीरीज में 16 कैच पकड़े। इसके बाद से वह टेस्ट क्रिकेट में भारत के पहले पसंदीदा विकेटकीपर बने रहे। इससे पहले उन्होंने 5 दिसंबर 1984 को अपना पहला वनडे इंटरनेशनल मैच खेला था। हालांकि, वह वनडे टीम के नियमित सदस्य नहीं थे।

विकेटकीपर के करियर में ये भी होता है कि उसकी गलती ही ज़्यादा दिखाई देती है। 1990 में लॉर्ड्स में खेले गए मैच में मोरे के साथ भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने 36 रन पर खेल रहे ग्राहम गूच का कैच छोड़ दिया और गूच ने 333 रन की बड़ी पारी खेल डाली।

लेकिन मोरे की पहचान उनके आंकड़ों से ज्यादा, उनके खेल के अंदाज से होती है। उनकी इसी खेल भावना ने 1992 के वर्ल्ड कप में जावेद मियांदाद को उनकी नकल करते हुए एक ‘जंपिंग जैक’ करने के लिए मजबूर कर दिया था। मोरे अपील बहुत करते थे। जरा सी भी गुंजाइश को लेकर बल्लेबाज को रियायत नहीं देते थे।

मियांदाद उस मैच में बैक इंजरी से उभरकर आए थे। मोरे ने भारतीय गेंदबाजों को मियांदाद को शॉर्ट बॉल न करने की सलाह दी थी। ऊपर से मियांदाद के खिलाफ मोरे की अपील लगातार जारी थी। दोनों इस बात को लेकर भी बहस कर रहे थे, मैच तो हम ही जीतेंगे। मोरे की ओर देखकर मियांदाद का बंदर की तरह उछलना आज भी भारत-पाक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विता के सबसे बड़े क्षण में से एक है।

जावेद मियांदाद ही नहीं, मोरे ने न तो विवियन रिचर्ड्सन को छोड़ा था और न ही मार्टिन क्रो को। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था कि ये तीनों टॉप प्लेयर थे। इसलिए उन्होंने इन तीनों के खिलाफ स्लेजिंग की थी। स्लेजिंग….बल्लेबाज का ध्यान भंग करने का पुराना तरीका है।

मोरे की कभी हार न मानने वाली भावना का एक और सबूत 1992 के वर्ल्ड कप में गाबा के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ आखिरी ओवर में टॉम मूडी की दो गेंदों पर दो चौके मारना था, जिससे भारत एक असंभव जीत के करीब पहुंच गया था। हालांकि, अगली ही गेंद पर एक खराब शॉट खेलकर वह आउट हो गए, लेकिन कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्होंने कोशिश नहीं की थी।

1993 में अपना अंतिम टेस्ट और वनडे खेलने वाले मोरे ने 1998 तक बड़ौदा के लिए खेला और फिर क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 2002 में, उन्हें भारतीय टीम का मुख्य चयनकर्ता नियुक्त किया गया, जिसका पद उन्होंने चार साल तक संभाला। उन्होंने कोचिंग की ओर भी रुख किया और अपने शहर में एक सफल क्रिकेट अकादमी चलाई। हार्दिक पांड्या इसी अकादमी से निकले एक बड़े नाम हैं।

4 सितंबर को ही क्रिकेट के एक और बड़े सितारे लांस क्लूजनर का भी जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका के एक ऐसे ऑलराउंडर जिनके खेल ने क्रिकेट प्रेमियों को 90 के दशक में रोमांच से भर दिया था। क्लूजनर बाएं हाथ के बड़े आक्रामक बल्लेबाज और दाएं हाथ के बढ़िया तेज गेंदबाज थे। क्लूजनर ने अपने आगाज के साथ ही क्रिकेट को बता दिया था कि दक्षिण अफ्रीका में एक तूफान का आगाज हो चुका है, जो अपने दम पर किसी भी टीम को तिनके की तरह उड़ाने की क्षमता रखता है।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए क्लूजनर ने 1996 में टाइटन कप में अपनी बैटिंग और बॉलिंग के जौहर दिखा दिए थे। क्लूजनर का टेस्ट डेब्यू भी 1996 में भारत के खिलाफ हुआ था। उनकी गेंदबाजी में बेस्ट टेस्ट प्रदर्शन भी भारत के खिलाफ है। उन्होंने 64 रन देकर 8 विकेट लिए थे।

क्लूजनर अपने आगाज पर जितने रोमांचकारी क्रिकेटर थे, खेल बढ़ने के साथ-साथ उतने ही मैच्योर भी होते गए। तब क्रिकेट में फिनिशिंग बड़ी दुर्लभ कला थी। लेकिन क्लूजनर ने इसके मायने बदलकर रख दिए। तूफानी अंदाज के साथ निचले क्रम पर रन बनाना और नाबाद रहते हुए टीम को जिताना। धीरे-धीरे क्लूजनर फिनिशर के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके थे।

उनकी गेंदबाजी लगातार जारी रही, भले ही उसकी धार पहले जैसी नहीं रही थी। दक्षिण अफ्रीका वर्ल्ड कप इतिहास में चोकर्स कहे जाते हैं। इसका एक बड़ा दिलचस्प किस्सा क्लूजनर के साथ भी जुड़ा हुआ है। यह 1999 के वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल मैच था जिसमें दक्षिण अफ्रीका का सामना ऑस्ट्रेलिया से हो रहा था। ऑस्ट्रेलिया ने पहले बैटिंग करते हुए 213 ही रन बनाए थे। जवाब में दक्षिण अफ्रीका 7 विकेट के नुकसान पर 183 रन पर पहुंच चुकी थी।

क्लूजनर को उस मैच को फिनिश करने के लिए 8वें नंबर पर भेजा गया था। क्लूजनर ने अविश्वसनीय बल्लेबाजी करते हुए 16 गेंदों पर नाबाद 31 रनों की पारी खेली और स्कोर बराबर कर दिया। स्कोर टाई होने के बाद भी चार गेंद शेष थीं। सब क्लूजनर से विजयी रन की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन तीसरी गेंद पर क्लूजनर कोई रन नहीं ले पाए।

अगली गेंद पर क्लूजनर का शॉट सीधा फील्डर के हाथ में गया और नॉन स्ट्राइकर पर खड़े एलन डोनाल्ड घबराहट में एक रन के लिए भाग खड़े हुए। ऑस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड को रन आउट कर दिया और मैच टाई होने के साथ दक्षिण अफ्रीका का वर्ल्ड कप जीतने का सपना भी टूट गया था।

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–आईएएनएस

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