पटना, 9 सितंबर (आईएएनएस)। केंद्र सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया है। लेकिन, एजेंडे का खुलासा नहीं किया है। चर्चा है कि विशेष सत्र में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल पेश किया जा सकता है। खासकर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले यह राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है।
हालांकि, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कोई नया मुद्दा नहीं है। लेकिन, यह उन बिंदुओं में से एक होगा, जहां विपक्षी दलों की सहमति भिन्न हो सकती है।
‘इंडिया’ गठबंधन के गठन के बाद विपक्षी दल भाजपा और आरएसएस के लगभग सभी एजेंडों के खिलाफ एकजुट हैं। महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण ऐसा ही एक एजेंडा हो सकता है।
पूर्व में राजद, जदयू, समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों ने संसद में इस बिल का विरोध किया था।33 प्रतिशत आरक्षण पहली बार 1996 में एचडी देवेगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान पेश किया गया था, लेकिन संसद के दोनों सदनों में पारित होने में विफल रहा। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान भी यही हुआ था।
महिला आरक्षण बिल 2010 में मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान पेश किया गया था। उस समय जदयू के शरद यादव, राजद के लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने विधेयक पर कड़ी आपत्ति जताई थी।
खासतौर पर शरद यादव राज्यसभा में ज्यादा मुखर रहे। वह उच्च सदन के वेल में चले गए और बिल फाड़ दिया। उन्होंने कहा कि बाल कटाने और स्टाइल करने वाली महिलाएं गांव की महिलाओं का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती हैं?
उन दिनों को याद करते हुए शरद यादव के साथ जेडीयू के राज्यसभा सांसद रहे शिवानंद तिवारी ने दावा किया, उस वक्त बिल पर पार्टी प्रमुख नीतीश कुमार की राय अलग थी।
शिवानंद तिवारी के मुताबिक, “जब यह बिल संसद के पटल पर रखा गया तो पार्टी की राय इसका समर्थन करने की थी। शरद यादव ने पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर राज्यसभा में इस पर कड़ी आपत्ति जताई। उनकी असहमति के कारण, जद-यू के सभी सांसदों की एक बैठक राम सुंदर दास के आधिकारिक आवास पर हुई, मैंने सुझाव दिया कि दास नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच एक पुल बनें। इसलिए, नीतीश कुमार उस विधेयक के पक्ष में थे।”
2010 के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 और 2019 में सत्ता संभाली लेकिन यह संसद में पारित नहीं हो सका।
शिवानंद तिवारी ने कहा, “हम सुन रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार इस विधेयक को विशेष सत्र के दौरान संसद में पेश कर सकती है, लेकिन कोई नहीं जानता कि यह दोनों सदनों में पारित होगा या नहीं।”
उन्होंने कहा कि हमारा दृढ़ विश्वास है कि देश में आरक्षण के भीतर आरक्षण होना चाहिए। लेकिन, आप महिलाओं की मानसिकता को भी नहीं बदल सकते। वे भी जाति रेखा के तहत काम करती हैं।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के मसौदे के अनुसार एक सीट तीन कार्यकाल (15 वर्ष) के लिए आरक्षित की जाएगी और फिर इसमें बदलाव किया जाएगा।
बिहार जैसे राज्यों में परंपरा है कि एक बार जब सीट महिलाओं के लिए आरक्षण में आ जाती है, तो पुरुष उम्मीदवार अपने जीवनसाथी को चुनाव लड़ने के लिए लाते हैं।
बिहार में पंचायत चुनावों में अक्सर ऐसा होता है, जहां महिलाएं आरक्षित सीटों पर चुनाव तो लड़ती हैं लेकिन उनकी हैसियत कठपुतली से ज्यादा नहीं होती।
चुनाव प्रचार से लेकर सरकारी कामकाज तक सभी काम निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के पति ही देखते हैं। वोट इस आधार पर भी मिले कि उनके पति अपने निर्वाचन क्षेत्र में कितने प्रभावशाली हैं।
–आईएएनएस
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