नई दिल्ली, 8 अक्टूबर (आईएएनएस)। 22 जनवरी को रामलला अपने मंदिर में ससम्मान विराजे। इससे पहले अयोध्या के चौक चौराहों पर रवींद्र जैन की आवाज गूंज रही थी। रामानंद सागर की रामायण के भक्ति गीतों और भजनों से लोग सम्मोहित हो रहे थे। हर ओर आधुनिक युग के इस ‘सूरदास’ की मीठी आवाज में ‘राम भक्त ले चला रे राम की निशानी,’ ‘मंगल भवन अमंगल हारी,’ ‘रामायण चौपाई’ समेत कई भक्ति गीत कानों में रस घोल रहे थे। लग ही नहीं रहा था कि जिनके गीत आत्मा को छू रहे हैं वो 9 अक्टूबर 2015 को ही संसार त्याग बैकुंठ धाम को चले गए हैं।
रवींद्र जैन को भारतीय संस्कृति और राम से अगाध प्रेम था। अपनी जीवनी ‘सुनहरे पल’ में साझा किए किस्से से साफ भी होता है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे एक विशाल जन समुदाय के सामने मंच पर उन्होंने जो कहा उसकी गूंज पूरे देश में सुनाई दी। रवींद्र ने राम मंदिर के लिए दान की प्रार्थना की थी। गाया, “पांच रुपैया दे दे भैया, राम शिला के नाम का, राम के घर में लग जाएगा पत्थर तेरे नाम का, बच्चा बच्चा राम का, जन्म भूमि के काम का।
28 फरवरी 1944 को जन्मे रवींद्र जैन देख नहीं सकते थे। सात भाई बहनों में तीसरे नंबर पर थे। संस्कृत के प्रकांड पंडित और आयुर्वेदाचार्य पिता इंद्रमणि जैन ने पूत के पांव पालने में देख लिए थे। बस फिर संगीत की शिक्षा शुरू हो गई।
‘सुनहरे पल’ में रवींद्र जैन की शुरुआत में ही ‘पहले सुनहरे पल’ की कहानी बताई। लिखा है- पैदाइश के एक दिन बाद आंखों की सर्जरी हुई। चिकित्सक ने सलाह दी कि खास ख्याल रखना पढ़ने के लिए ज्यादा ज़ोर न डालने देना, अन्यथा रोशनी का जो आभास मात्र है, वह भी समाप्त हो जाएगा। पिताजी ने निर्णय लिया कि मुझे ऐसी कला में डाला जाए, जिसमें नेत्रों का योगदान कम से कम हो। यही निर्णय का पल, मेरे जीवन कर पहला सुनहरा पल था।
अपनी जीवनी में रवींद्र ने जन्मभूमि से कर्मभूमि तक के सफर को यूं बयां किया है जैसे उन्होंने खुली आंखों से सब देखा हो। दिलचस्प बात ये है कि अलीगढ़ से रवींद्र मुंबई नहीं आए बल्कि इनके सपनों की नगरी कलकत्ता थी। रबींद्र संगीत का प्यार इन्हें चचेरे भाई संग यहां ले आया।
फिर 1969 में गुरु राधेश्याम झुनझुनवाला उन्हें मुंबई ले आए। चाहते थे कि वो जो फिल्म बनाए उसमें संगीत इनका ही हो। तो इस तरह 14 जनवरी 1971 को रवींद्र जैन ने अपने संगीत निर्देशन में फिल्म लोरी के लिए गाने रिकॉर्ड किया। ये कभी पर्दे पर रिलीज नहीं हो पाई लेकिन रवींद्र खुश थे कि उनके संगीत निर्देशन में रफी, लता सरीखे कलाकारों ने अपनी आवाज तो दी। खैर पहला बड़ा ब्रेक 1972 की फिल्म ‘कांच और हीरा’ में मिला। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म चल नहीं पाई लेकिन रफी का गाया गीत ‘नजर आती नहीं मंजिल’ खूब पसंद किया गया।
1973 की ‘सौदागर’ ने इनको खूब ख्याति दी। ‘सजना है मुझे’ से लेकर ‘तेरा मेरा साथ रहे’ लोगों की जुबान पर चढ़ गया। इसके बाद तो इस संगीतकार ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
रवींद्र जैन के गाने की खासियत उसकी सहजता थी। भाव बड़े अहम थे। शब्द भी ऐसे वैसे नहीं होते थे, शुचिता गानों की जान थी। ‘चोर मचाए शोर’ के ‘घुंघरू की तरह’, ‘तपस्या’ के ‘दो पंछी दो तिनके’, ‘चितचोर’ के ‘गोरी तेरा गांव’ और 1975 में राजश्री प्रोडक्शन की ‘गीत गाता चल’ के सभी गीत कानों में मिसरी सी घोल जाते हैं।
1977 की ‘श्याम तेरे कितने नाम’ में जसपाल सिंह का गाया गाना ‘जब जब तू मेरे सामने आए , मन का संयम टूटा जाए’, 1978 का ‘अंखियों के झरोखे से’ और 1982 में आई ‘नदिया के पार’ से लेकर राम तेरी गंगा मैली तक के सफर में रवींद्र जैन ने ऐसे गाने रचे जो सुपरहिट थे। कई फिल्मों के तो हिट होने तक में रवींद्र जैन के सुमधुर गानों का योगदान रहा।
जैन साहब के संगीत में ही नहीं लेखनी में भी गजब का दम था। यही वजह है कि संगीतकार के तौर पर ही नहीं गीतकार के तौर पर भी पुरस्कृत हुए। ‘अंखियों के झरोखों’ का टाइटल ट्रैक हो या फिर ‘हिना’ का ‘मैं हूं खुशरंग हिना’ रवींद्र जैन को बतौर सर्वश्रेष्ठ गीतकार फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
ऐसा नहीं है कि जैन साहब को नाकामयाबी का सामना नहीं करना पड़ा। देश के पांच रिकॉर्डिंग स्टूडियो ने ऑडिशन में फेल तक कर दिया था।
80 के दशक में आस्ते-आस्ते रवींद्र को एहसास हो गया था कि इंडस्ट्री बदल रही है। नब्ज पहचानी और धारावाहिकों का रुख कर लिया। धारावाहिकों में संगीत देने और गीत लिखने का सिलसिला शुरू किया। इससे हुआ ये कि रवींद्र जैन के पास कभी काम की नहीं रही। एक गीतकार के रूप में जो वो बड़े पर्दे के लिए नहीं कर पाए छोटे पर्दे पर बखूबी कर दिखाया।
गजलें लिखीं। एक संग्रह ‘दिल की नजर से’ प्रकाशित भी हुआ इसके अलावा उन्होंने कुरान का अरबी भाषा से उर्दू जबान में अनुवाद भी किया। श्रीमद्भगवत गीता का भी सरल हिंदी पद्यानुवाद किया। फिर पुस्तक रवींद्र रामायण भी छपी। रवींद्र जैन ने श्रीमद्भ भागवतम, सामवेद और उपनिषदों का सरल हिंदी में अनुवाद भी किया।
सिनेमा के प्रति समर्पण ने कइयों को उनका कायल बनाया। 2015 में पद्मश्री से सम्मानित हुए लेकिन अफसोस उसी साल लंबी बीमारी से लड़ते हुए दुनिया से विदा भी हो गए।
–आईएएनएस
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