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राजा राधिकारमण सिंह : साहित्य जगत के रत्न, जिनकी रचनाओं ने दी समाज को नई चिंतनधारा

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September 10, 2024
in राष्ट्रीय
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राजा राधिकारमण सिंह : साहित्य जगत के रत्न, जिनकी रचनाओं ने दी समाज को नई चिंतनधारा
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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

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हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

एकेएस/जीकेटी

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

एकेएस/जीकेटी

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर (आईएएनएस)। साहित्य के स्वर अनेक हो सकते हैं। वह सामाजिक चेतना के स्वर हो, जनजागरण के स्वर हो, क्रांति के स्वर हो, प्रेम के स्वर हो लेकिन साहित्य कभी आदर्शवाद के स्वर के साथ नहीं चला। क्योंकि साहित्य का लेखन हमेशा से ही कल्पना से परे एक ऐसे आसमान को छूने की कवायद रही जिसमें कलमों से निकले शब्द कभी उस आदर्श मानक स्तंभ के लिए गढ़े ही नहीं गए, जिसको समाज हमेशा देखना-सुनना और महसूस करना चाहता था।

दरअसल समाज तो हमेशा एक स्थायी व्यवस्था से संचालित होने को उतारू रहा है। लेकिन, साहित्य ने व्यवस्थाओं की बेड़ियां कभी पहनी नहीं। वह विरोध के स्वर भी पैदा करता रहा और वह सामाजिक समरसता का भी प्रतिबिंब बना। लेकिन हिंदी साहित्य के मंच पर एक ऐसे साहित्यकार भी पैदा हुए जिनकी कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा।

हिन्दी साहित्य में “शैली सम्राट” के उपमा से विभूषित ‘राजा राधिकारमण सिंह’ भारतीय साहित्य के शिखर पुरूष रहे। उनकी कहानियों में आदर्शवाद का पुट पाठकों को जीवंतता का बोध कराता है। इनका कहानी-संग्रह ‘कानों में कंगना’ विख्यात है। इस कहानी में मार्मिकता का बोध है, जो मानव चेतना के सुसुप्त स्तर को जागृत अवस्था में लाता है। इस कहानी में वासना और प्रेम के बीच का विभेद कहानी के संवाद का हिस्सा है। कहानी का पात्र आकर्षकता और रोचकता को समेटे हुए है लेकिन इसका पटाक्षेप जीवन के लिए एक सबक और समझाइश है। पुरुषों के आकर्षण को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी समाज के दर्पण के तौर पर अमूल्य धरोहर है।

उनकी ओर से लिखी गई चर्चित कहानी ‘दरिद्र नारायण’ आज भी समाज के स्याह पक्ष को उजागर करती है। इस कहानी में मार्मिकता के साथ संवेदनशीलता है, जो एक नई तस्वीर पाठकों के सामने पेश करती है। उन्होंने ‘दरिद्र’ को ही ‘नारायण’ माना। दरअसल आजादी से पहले हमारा देश राजतंत्र और लोकशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। उस समय की तात्कालिक परिस्थितियों को केंद्र बिंदु मानते हुए लिखी गई इस कहानी में भावनाओं का ज्वार है, जो अंतरात्मा को झकझोरने का काम करती है।

साहित्य सृजन के अनुपम रत्न ‘राजा राधिकारमण सिंह’ ने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचना के जरिए समाज के मानस को एक नई चेतना का स्वर दिया। नारी क्या एक पहेली?, हवेली और झोपड़ी, देव और दानव, वे और हम, धर्म और मर्म, तब और अब, अबला क्या ऐसी सबला?, बिखरे मोती ये उनकी ओर से लिखी गई कहानियां है।

राधिकारमण सिंह ने चर्चित उपन्यास राम-रहीम, पुरुष और नारी, सूरदास, संस्कार, पूरब और पश्चिम, चुंबन और चांटा प्रमुख रचनाएं है। साथ ही नवजीवन, प्रेम लहरी उनके महत्वपूर्ण गद्यकाव्य है। धर्म की धुरी, अपना पराया, नजर बदली बदल गये नजारे उनकी ओर से लिखे गए नाटक के महत्वपूर्ण पात्र है।

राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितंबर 1890 को सूर्यपुरा, शहाबाद (बिहार) में हुआ था। वे प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह के बेटे थे। राजपरिवार में पैदा होने के बाद भी इनका मन राज काज में नहीं लगा, उन्होंने साहित्य की साधना का मार्ग चुन लिया और अपनी रचनाओं को ही विरासत माना, जिस पर आज की नई पीढ़ी को नाज है। साल 1935 में अपनी रियासत की सारी जिम्मेदारी अपने छोटे भाई को सौंपकर साहित्य साधना के वह अराधक महापुरूष बने।

साल 1920 में अंग्रेजों ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। 1920 में वे बेतिया में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। साहित्य से जुड़ाव होने के कारण उनका प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक क्षितिज पर पड़ा। गांधीवादी विचारों में आस्था रखने वाले ‘राजा साहब’ ने आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।

साहित्य जगत में उनके योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्म भूषण से सम्मानित किया। वहीं 1965 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से उन्हें नवाजा गया। लगभग 50 सालों तक साहित्य सेवा के अनन्य साधक रहे राधिकारमण प्रसाद सिंह 24 मार्च 1971 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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