नई दिल्ली, 14 सितंबर (आईएएनएस)। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय भारतीय साहित्य के उन चमकते सितारों में से एक हैं, जिन्होंने बांग्ला साहित्य को यथार्थवाद की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 15 सितंबर 1876 को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के देवानंदपुर में जन्मे इस उपन्यासकार ने अपनी रचनाओं के जरिए समाज की गहराइयों को छुआ। ‘देवदास’, ‘परिणीता’ और ‘श्रीकांत’ जैसे कालजयी उपन्यासों के रचयिता शरत चंद्र ने महिलाओं की पीड़ा, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय भावनाओं को अपनी लेखनी में उतारा।
वे अपने माता-पिता मोतीलाल चट्टोपाध्याय और भुवनमोहिनी देवी की नौ संतानों में से एक थे। गरीबी और पारिवारिक संघर्षों के बीच पला-बढ़ा शरतचंद्र बचपन से ही साहित्य की ओर आकर्षित हो गए।
रवींद्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाओं से प्रेरित होकर उन्होंने कम उम्र में ही लेखन की शुरुआत की। शरतचंद्र का प्रारंभिक जीवन घुमक्कड़ था। 1894 में उन्होंने एंट्रेंस परीक्षा पास की, लेकिन वे आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा पूरी नहीं कर सके। 1896 से 1899 तक वे भागलपुर में रहे, जहां उन्होंने साहित्य सभा का संचालन किया। 1903 में वे बर्मा (अब म्यांमार) चले गए, जहां एक क्लर्क के रूप में काम करते हुए उन्होंने कई रचनाएं लिखीं।
बर्मा से लौटने पर 1907 में उनकी पहली रचना ‘बड़ी दीदी’ (महेश्वरी दीदी) बिना बताए ‘भारती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई, जो रातोंरात हिट हो गई। इसकी सफलता ने उन्हें साहित्य जगत में स्थापित कर दिया।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाओं का मूल आधार ग्रामीण बंगाल की जीवनशैली, महिलाओं की दयनीय स्थिति, सामाजिक कुरीतियां और मानवीय संघर्ष थे। वे यथार्थवाद के प्रणेता थे, जो आदर्शवाद से हटकर वास्तविकता को चित्रित करते थे।
उनके प्रमुख उपन्यासों में ‘देवदास’ (1917), जो प्रेम और वियोग की कालजयी कहानी है, ‘परिणीता’ (1914), जो बाल विवाह और प्रेम त्रिकोण पर आधारित है और ‘श्रीकांत’ (1917-1933) शामिल हैं, जो एक अनाथ युवक की जीवन यात्रा को दर्शाता है।
उनकी उल्लेखनीय कृति ‘पाथेर दाबी’ (1926) बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन पर आधारित थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया। उनकी कहानियां जैसे ‘बिन्ना’, ‘मामलार फल’ और ‘अभागी का स्वर्ग’ महिलाओं के अधिकारों और सामाजिक सुधार पर केंद्रित हैं।
शरतचंद्र की रचनाएं न केवल बांग्ला में, बल्कि हिंदी, तमिल, तेलुगु जैसी भाषाओं में अनुदित होकर पूरे भारत में लोकप्रिय हुईं।
‘देवदास’ पर 1955 में दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म बनी, जबकि 2002 में शाहरुख खान ने इसे जीवंत किया। ‘परिणीता’ पर 2005 में विद्या बालन और सैफ अली खान की फिल्म आई। उनकी कृतियां आज भी सिनेमा, टीवी और थिएटर को प्रेरित करती हैं। वे महिलाओं के प्रति संवेदनशील थे और विधवा विवाह, छुआछूत जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई।
16 जनवरी 1938 को कलकत्ता में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी साहित्यिक विरासत अमर है।
–आईएएनएस
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