deshbandhu

deshbandu_logo
  • राष्ट्रीय
  • अंतरराष्ट्रीय
  • लाइफ स्टाइल
  • अर्थजगत
  • मनोरंजन
  • खेल
  • अभिमत
  • धर्म
  • विचार
  • ई पेपर
deshbandu_logo
  • राष्ट्रीय
  • अंतरराष्ट्रीय
  • लाइफ स्टाइल
  • अर्थजगत
  • मनोरंजन
  • खेल
  • अभिमत
  • धर्म
  • विचार
  • ई पेपर
Menu
  • राष्ट्रीय
  • अंतरराष्ट्रीय
  • लाइफ स्टाइल
  • अर्थजगत
  • मनोरंजन
  • खेल
  • अभिमत
  • धर्म
  • विचार
  • ई पेपर
Facebook Twitter Youtube
  • भोपाल
  • इंदौर
  • उज्जैन
  • ग्वालियर
  • जबलपुर
  • रीवा
  • चंबल
  • नर्मदापुरम
  • शहडोल
  • सागर
  • देशबन्धु जनमत
  • पाठक प्रतिक्रियाएं
  • हमें जानें
  • विज्ञापन दरें
ADVERTISEMENT
Home ताज़ा समाचार

‘शोले’ के 49 साल : बॉलीवुड की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म का जश्न

by
August 15, 2024
in ताज़ा समाचार
0
0
SHARES
1
VIEWS
Share on FacebookShare on Whatsapp
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

READ ALSO

भविष्य में पीएम मोदी के पहले और बाद का चैप्टर लिखा जाएगा: जितेंद्रानंद सरस्वती

ग्वालियर के नए वोटर्स ने पीएम मोदी के 11 साल के कार्यकाल को सराहा

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

ADVERTISEMENT

मुंबई, 15 अगस्त (आईएएनएस)। भारतीय सिनेमा के भव्य ताने-बाने में, कुछ फ़िल्में कालातीत मील के पत्थर के रूप में आज भी खड़ी हैं, जो कहानी कहने के तरीके को स्वरूप देती हैं और पीढ़ियों के लिए इसके सांस्कृतिक प्रभाव को परिभाषित करती हैं। ऐसी ही एक फिल्म है ‘शोले’ – एक सिनेमाई चमत्कार जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि एक सांस्कृतिक घटना भी बन चुका है। इसकी रिलीज़ के 49 साल पूरे हो रहे हैं। यह इस बात पर विचार करने का सही समय है कि वह कौन से कारक हैं जो ‘शोले’ को एक शाश्वत कृति बनाती है।

एक क्लासिक का जन्म

साल 1975 में 15 अगस्त को रिलीज़ हुई ‘शोले’, लेखक सलीम-जावेद के दिमाग की उपज थी और रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित थी। यह वह समय था जब बॉलीवुड बदलाव के दौर से गुजर रहा था, जिसमें फ़िल्म निर्माता अलग-अलग शैलियों, कथाओं और स्टाइल के साथ प्रयोग कर रहे थे।

‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म के रूप में उभरी जिसमें विभिन्न तत्वों – एक्शन, ड्रामा, रोमांस, कॉमेडी और संगीत – का सहज मिश्रण था, जिसने एक नई शैली की “मसाला” फिल्म बनाई जिसने सभी तरह के दर्शकों को आकर्षित किया।

फिल्म काल्पनिक गांव रामगढ़ की पृष्ठभूमि पर बनी है और दो छोटे-मोटे बदमाशों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) की कहानी है, जिन्हें कुख्यात डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) को पकड़ने के लिए एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) काम पर रखता है। अंततः फिल्म दोस्ती, बदला और न्याय का एक महाकाव्य बनी, जो ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

अविस्मरणीय पात्र

‘शोले’ की चिरस्थायी अपील का एक कारण इसके पात्रों की समृद्ध टेपेस्ट्री है, जिनमें से प्रत्येक भारतीय सिनेमा की सामूहिक स्मृति में अंकित है। जय और वीरू ने अपनी सच्ची दोस्ती और मजाक के खास अंदाज के साथ दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ठाकुर, अपनी दुखद बैकस्टोरी और दृढ़ संकल्प के साथ, फिल्म के नैतिक केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसंती (हेमा मालिनी), अपनी प्यारी बकबक वाली गांव की लड़की और राधा (जया बच्चन), बोलती आंखों वाली मूक विधवा, ने फिल्म की भावनात्मक कथा में गहराई ला दी।

हालांकि, गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान ने वाकई सबका दिल जीत लिया। उनके अविस्मरणीय संवाद और शानदार हाव-भाव ने गब्बर को बॉलीवुड के इतिहास में सबसे यादगार खलनायकों में से एक बना दिया। “कितने आदमी थे?” और “ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर” जैसी लाइनें भारतीय सिनेमा के सबसे मशहूर संवाद बन गई हैं।

ब्लॉकबस्टर का निर्माण

‘शोले’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी; यह इतिहास बन रही थी। ढाई साल में शूट की गई इस फ़िल्म के निर्माण में बजट से लेकर तकनीकी दिक्कतों तक कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, फ़िल्म निर्माताओं ने अपने काम के प्रति समर्पण दिखाया।

आर.डी. बर्मन का संगीत और आनंद बख्शी के बोल फ़िल्म की सफलता का अहम हिस्सा बन गए। “ये दोस्ती”, “हां, जब तक है जान” और “महबूबा महबूबा” जैसे गाने आज भी याद किए जाते हैं, जिनमें से हर एक धुन फ़िल्म की कहानी में एक रस घोलती है।

सांस्कृतिक मील का पत्थर

जब ‘शोले’ पहली बार स्क्रीन पर आई, तो बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन ज्यादा उत्साहजनक नहीं रहा। आलोचकों ने इसके लंबे रनटाइम और अपरंपरागत ढांचे पर सवाल उठाए। हालांकि, लोगों की प्रशंसा और बार-बार देखने से यह फिल्म एक बेहतरीन फिल्म बन गई, जो अंततः मुंबई के मिनर्वा थिएटर में पांच साल तक चली।

इसके संवाद, चरित्र और दृश्यों का फिल्मों, टेलीविजन शो और यहां तक ​​कि आम चर्चाओं में भी अनगिनत बार संदर्भ दिया गया है। जय और वीरू की दोस्ती ऑन-स्क्रीन दोस्ती का मानक बन गई, और गब्बर सिंह की खलनायकी ने आने वाले सभी प्रतिद्वंद्वियों के लिए बेंचमार्क स्थापित किया।

शोले की विरासत

‘शोले’ अपनी 49वीं वर्षगांठ मना रही है, लेकिन भारतीय सिनेमा में इसकी विरासत बेमिसाल बनी हुई है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसने अपने सितारों के करियर को आकार दिया है, अनगिनत फिल्म निर्माताओं को प्रभावित किया है और फिल्म देखने वालों की पीढ़ियों को प्रेरित किया है। आज भी, यह फिल्म युवा और वृद्ध दोनों दर्शकों को पसंद आती है, जो इसके जादू का साक्षात्कार करते हैं।

–आईएएनएस

एकेजे/

Related Posts

ताज़ा समाचार

भविष्य में पीएम मोदी के पहले और बाद का चैप्टर लिखा जाएगा: जितेंद्रानंद सरस्वती

June 10, 2025
ताज़ा समाचार

ग्वालियर के नए वोटर्स ने पीएम मोदी के 11 साल के कार्यकाल को सराहा

June 10, 2025
ताज़ा समाचार

बोनी कपूर ने एनडीए सरकार के कार्यकाल को सराहा, बोले- पीएम मोदी वैश्विक और दूरदर्शी नेता

June 10, 2025
ताज़ा समाचार

दिल्ली में 66 अवैध बांग्लादेशी गिरफ्तार, घनी आबादी वाले इलाकों में ले रहे थे पनाह

June 10, 2025
ताज़ा समाचार

जम्मू-कश्मीर: पाक गोलाबारी से प्रभावित घरों के लिए केंद्र ने 25 करोड़ रुपए की अतिरिक्त सहायता राशि को मंजूरी दी

June 10, 2025
ताज़ा समाचार

उत्तर प्रदेश: अमरोहा में सीजीएसटी अधीक्षक और कर अधिवक्ता रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार

June 10, 2025
Next Post
मध्य प्रदेश में स्थापना दिवस से शुरू होंगे चार मिशन : सीएम मोहन यादव

मध्य प्रदेश में स्थापना दिवस से शुरू होंगे चार मिशन : सीएम मोहन यादव

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ADVERTISEMENT

Contact us

Address

Deshbandhu Complex, Naudra Bridge Jabalpur 482001

Mail

[email protected]

Mobile

9425156056

Important links

  • राशि-भविष्य
  • वर्गीकृत विज्ञापन
  • लाइफ स्टाइल
  • मनोरंजन
  • ब्लॉग

Important links

  • देशबन्धु जनमत
  • पाठक प्रतिक्रियाएं
  • हमें जानें
  • विज्ञापन दरें
  • ई पेपर

Related Links

  • Mayaram Surjan
  • Swayamsiddha
  • Deshbandhu

Social Links

083698
Total views : 5888079
Powered By WPS Visitor Counter

Published by Abhas Surjan on behalf of Patrakar Prakashan Pvt.Ltd., Deshbandhu Complex, Naudra Bridge, Jabalpur – 482001 |T:+91 761 4006577 |M: +91 9425156056 Disclaimer, Privacy Policy & Other Terms & Conditions The contents of this website is for reading only. Any unauthorised attempt to temper / edit / change the contents of this website comes under cyber crime and is punishable.

Copyright @ 2022 Deshbandhu. All rights are reserved.

  • Disclaimer, Privacy Policy & Other Terms & Conditions
No Result
View All Result
  • राष्ट्रीय
  • अंतरराष्ट्रीय
  • लाइफ स्टाइल
  • अर्थजगत
  • मनोरंजन
  • खेल
  • अभिमत
  • धर्म
  • विचार
  • ई पेपर

Copyright @ 2022 Deshbandhu-MP All rights are reserved.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password? Sign Up

Create New Account!

Fill the forms below to register

All fields are required. Log In

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In