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‘हमें अनुकंपा नहीं, न्याय चाहिए’, जब कांग्रेस अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी ने दिखाई थी ‘स्वराज’ की राह

देशबन्धु by देशबन्धु
September 3, 2025
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 3 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1906 और जगह थी कलकत्ता (अब कोलकाता)। कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा था और इसमें दादा भाई नौरोजी ने जोरदार भाषण दिया। उन्होंने अपने संबोधन में प्रमुखता से ‘स्वराज’ का जिक्र किया और ब्रिटिश हुकूमत को ललकारते हुए कहा था, ”जिस प्रकार सभी सेवाओं, विभागों और अन्य कार्यों में ब्रिटेन का प्रशासन उस देश की जनता के हाथों में होता है, वैसा ही भारत में भी होना चाहिए। हमें अनुकंपा नहीं बल्कि न्याय चाहिए।’

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‘डिजिटल संसद’ वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, 1906 के कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान दादा भाई ने स्वदेशी को भारत की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए एक अनिवार्य कदम बताया था।

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उन्होंने इसे भारत के ‘अस्वाभाविक आर्थिक दलदल’ से निकलने का रास्ता माना था और कहा था कि जिस प्रकार ब्रिटेन में प्रशासन, सेवाएं और अन्य कार्य जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में हैं, उसी प्रकार भारत में भी होना चाहिए। यह स्वशासन का आधार था।

दादाभाई का यह भाषण भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि इसने ‘स्वराज’ को न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता, बल्कि आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता के रूप में परिभाषित किया। उनके विचारों ने स्वदेशी आंदोलन को प्रेरित किया, जिसे बाद में महात्मा गांधी समेत कई नेताओं ने व्यापक रूप से अपनाया।

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को बंबई (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में हुआ था। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और 1886, 1893 और 1906 में इसके अध्यक्ष रहे। उन्होंने ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की, जिसे ब्रिटेन में भारतीय हितों की वकालत का मंच था। 1892 में वे यूनाइटेड किंगडम की संसद (हाउस ऑफ कॉमन्स) में चुने गए और वहां पहुंचने वाले वे पहले भारतीय बने।

नौरोजी को उनके समर्पण, बुद्धिमत्ता और देशभक्ति के लिए ‘भारत का महान युगपुरुष’ और ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’ कहा जाता है। उनकी ड्रेन थ्योरी, स्वराज की अवधारणा और स्वदेशी के समर्थन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा दी।

दादाभाई ने अपनी किताब ‘पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में ‘ड्रेन थ्योरी’ प्रस्तुत की, जिसमें बताया गया कि ब्रिटिश शासन भारत की संपत्ति को ब्रिटेन की ओर स्थानांतरित कर रहा था, जिस कारण भारत में गरीबी बढ़ रही थी। यह सिद्धांत भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण वैचारिक आधार बना।

नौरोजी ने पारसी समुदाय में सुधारों का समर्थन किया और महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक समानता के लिए काम किया। वे उदारवादी विचारधारा के समर्थक थे और शांतिपूर्ण तरीकों से बदलाव लाने में विश्वास रखते थे।

अपने अंतिम दिनों में भी उन्होंने भारत के हितों के बारे में ही सोचा। डिजिटल संसद की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, 1 जून, 1917 को वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। 30 जून, 1917 की शाम को उनका बंबई में निधन हो गया। उस समय उनकी उम्र 92 साल थी। दादाभाई का पार्थिव शरीर पारसी रीति-रिवाज के अनुसार ‘टावर ऑफ साइलेंस’ को अर्पित कर दिया गया।

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दादाभाई के निधन के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने 32वें अधिवेशन (1917, कलकत्ता) में एक शोक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में गहरा दुख व्यक्त करते हुए उनकी ‘भारत और उसकी जनता के प्रति लोक सेवा भावना से अर्पित बहुमूल्य सेवाओं’ को स्मरण किया गया। यह प्रस्ताव उनके राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान का प्रतीक था।

गोपाल कृष्ण गोखले ने दादाभाई को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था, “उनका जीवन आदर्श रहा है। गंगा के समान पवित्र, पृथ्वी के समान सहनशील, अहंकार से एकदम शून्य, देशभक्ति से परिपूर्ण, प्रेम से ओत-प्रोत और ऐसे उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील, जब कोई इस पर विचार करता है तो उसे लगता है कि मानो वह एक महान शक्ति से अनुप्राणित हो उठा है।”

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वहीं, महात्मा गांधी ने कहा था, “दादाभाई ने देश की जो निर्बाध और सतत सेवा की, वह भारत के लिए एक अनुकरणीय आदर्श सिद्ध होगी।”

–आईएएनएस

एफएम/एबीएम

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