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Home ताज़ा समाचार

बिहार के मिथिलांचल के मखाना को अब चाहिए बड़ा बाजार

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December 4, 2022
in ताज़ा समाचार
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बिहार के मिथिलांचल के मखाना को अब चाहिए बड़ा बाजार
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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

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बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

एमएनपी/एसकेपी

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

एमएनपी/एसकेपी

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

एमएनपी/एसकेपी

दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

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मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

एमएनपी/एसकेपी

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

एमएनपी/एसकेपी

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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दरभंगा, 4 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के मिथिलांचल में कहा जाता है पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। विद्या, वैभव शांति प्रतीक, इथीक मिथिल की पहचान। मिथिला की पहचान पोखर (तालाब), मछली, पान और मखाना से जुड़ी हुई है।

मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

–आईएएनएस

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मिथिलांचल के मखाना की दीवानगी न केवल देश में बल्कि विदेशों से भी जुड़ी हुई है। वैज्ञानिक मखाना को लेकर नए-नए शोध कर नई प्रजाति विकसित कर रहे हैं, जिससे किसानों को लाभ भी हो रहा है, लेकिन यहां के मखाने को सही ढंग से बाजार नहीं उपलब्ध होने के कारण किसानों को वह लाभ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वे हकदार हैं।

बिहार के दरभंगा, मधुबनी, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया सहित 11 जिलों में मखाना की खेती होती हैं। देश भर में मखाने के कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत बिहार के मिथिलांचल में होता है।

आंकडों के मुताबिक, बिहार की 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती होती है। बिहार के दरभंगा क्षेत्र में मखाना उत्पादन को देखते हुए मखाना अनुसंधान केंद्र की स्थपना की गई। इस केंद्र के स्थापित होने के बाद मखाना की खेती में बदलाव जरूर आया है।

मखाना अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. इंदु शेखर सिंह आईएएनएस को कहते हैं कि नई तकनीक से मखाना की पैदावार बढ़ी है। उनका कहना है कि आमतौर पर यहां के तालाबों में गहराई अधिक होती है, जिस कारण काफी बीज तालाब में ही रह जाता है।

उन्होंने बताया कि मखाना की खेती पारंपरिक रूप से तालाबों में की जाती है लेकिन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने नई प्रजाति स्वर्ण वैदेही विकसित किया है, जिससे किसानों को लाभ हो रहा है।

उन्होनें बताया कि अब खेतों में ही एक फीट जलभराव कर मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आमतौर पर मखाना की फसल तैयार होने में 10 महीने का समय लगाता है लेकिन इस प्रजाति की फसल कम समय में तैयार हो रही है और उत्पादन में भी वृद्धि हुई है।

आमतौर पर तालाब में मखाना की रोपाई नवंबर-दिसंबर में होती है लेकिन स्वर्ण वैदेही की रोपाई दिसंबर में हो रही है और फसल अगस्त महीने में तैयार हो जा रही है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस विधि से मखाना उत्पादन में खर्च भी कम आ रहा है और उत्पादन भी अधिक हो रहा है।

वैसे, मिथिलांचल के लोग भी मानते हैं कि मिथिलांचल के आर्थिक उन्नति में जलीय उत्पादों की अहम भूमिका है, लेकिन यहां के लोग इसे लेकर कई समस्याएं भी बताते हैं।

दरभंगा के अमूल्य सिंह कहते हैं कि मिथिला की पहचान में शुमार पान, मखाना और मछली तीनों का उत्पादन प्रभावित हो चुका है। मिथिलांचल का मुख्य उद्योग यहां के जलीय उत्पाद हैं। इनके उत्पादन में कमी का मुख्य कारण मार्केटिंग में आनेवाली बाधाएं हैं। अगर यहां के मखाना-मछली, सिंघारा आदि की बेहतर ढ़ंग से मार्केटिंग की जाए तो मिथिला भी समृद्धशाली बन सकती है।

मखाना के व्यवसायी और पीएलयू प्राइवेट लिमिटेड, दरभंगा के सीईओ राजीव रंजन कहते हैं कि मिथिलांचल का मखाना देश से निर्यात होता है, लेकिन उसका लाभ यहां के किसानों को नहीं मिलता है। उनका कहना है कि मखाना के निर्यात से देश को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। उन्होंने बताया कि यहां के व्यापारी दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश मखाना को भेजते हैं।

आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री कर मखाना उद्योग से जुडे राजीव कहते हैं कि जीआई टैग के बाद अपनी उपज की बढ़ती मांग की संभावनाओं के कारण किसानों के बीच उत्सव जैसा माहौल होना चाहिए था, क्योंकि इससे उनके आय के अवसर बढ़ने की पूरी उम्मीद थी।

लेकिन, वास्तविकता इससे काफी दूर है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उन्हें फसल पर अपने निवेश पर रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है और बाजार में मखानों की कीमत गिर गई है।

एक अन्य व्यापारी और मिथिला नेचुरल्स प्राइवेट लिमिटेड, मधुबनी के को फाउंडर मनीष आनंद कहते हैं कि आज जितना मखाने का उपयोग किया जा रहा है उससे कई गुना बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि सरकारी कार्यक्रमों और होटलों में मखाना उत्पादनों को परोसना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे मखाना का बिहार में ही बड़ा बाजार तैयार हो सकता है।

ब्हरहाल, मखाना को बड़ा बाजार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी गुणवत्ता को बढावा देने के क्रम में छोटे और बडे कार्यक्रमों के आयोजन कर भी इसके उपयोग को और इसकी पहचान को बढ़ाई जा सकती है।

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