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Home ताज़ा समाचार

जयंती विशेष: असित हालदार रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘नाती’ जिनकी कूची ने रची कहानियां

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September 10, 2024
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

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बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

केआर/

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

केआर/

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

केआर/

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

–आईएएनएस

केआर/

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नई दिल्ली, 10 सितंबर, आईएएनएस। “तुम चित्रकार ही नहीं कवि भी हो यही कारण है कि तुम्हारी तूलिका से रस धारा बहती है, तुम्हारी चेतना ने मिट्टी में भी प्राण फूंक दिए हैं।” गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के यह शब्द उस रचनाकार के लिए हैं जिसने अपनी कूची के जरिए कहानियां रची। बीसवीं सदी का ऐसा कलाकार जिसे अंग्रेजों ने भी सम्मानित किया और जो गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के रिश्ते में नाती लगते थे। नाम था असित के हालदार। जिनकी शैली जितनी सहज थी उतनी ही मानवीय संवेदनाओं को कुरेदने वाली भी।

महज चित्रकारी के खाके में इन्हें फिट करना उचित नहीं होगा। ये ऐसे रचनाकार थे जो रंग कैनवास पर, लकड़ियों पर, दीवारों पर भरते भी थे और भावों को अभिव्यक्त करने के लिए मूर्तिकला और साहित्य रचते भी थे।

बहुमुखी कला के धनी असित के हालदार को 1934 में रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स, लंदन ने फेलोशिप से भी नवाजा। जब भारत की ये कल्चरल सिटी करवट बदल रही थी तब इस कलाकार ने डोर बड़ी मजबूती से थामी। न्यू बंगाल स्कूल ऑफ ऑर्ट के आर्टिस्ट जमात की पहली पीढ़ी की मशाल बड़े अदब से थामी।

रवींद्रनाथ टैगोर के नाती हालदार का जन्म 10 सितंबर 1890 में हुआ। परिवार कला को समर्पित था। माहौल संगीत, नृत्य और साहित्य का था। प्रभाव इस बच्चे पर भी पड़ा और छोटी उम्र में ही कूची को अपना साथी बना लिया। बहुत कम उम्र में ही पेंटिंग के प्रति अपनी योग्यता दिखा दी। शुरुआती दिनों की एक पेंटिंग खासी पसंद की गई। ‘अर्जुन द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखते हुए’ न केवल उनकी प्रतिभा की गवाही देता है, बल्कि पौराणिक विषयों के प्रति उनके झुकाव की मुनादी भी।

जैसे जैसे बड़े हुए भारतीय धर्मग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया। खास बात ये कि चित्रकारी ऐसी की कि वो महज कागज पर रचा संसार नहीं लगते थे बल्कि बोलते हुए प्रतीत होते थे। मिथकों और किंवदंतियों का चयन भी उनकी पेंटिंग की शैली में झलका जो सरल, काव्यात्मक और एक अद्भुत अनुग्रह और सुंदरता से युक्त था।

कलकत्ता (अब कोलकाता) गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा प्राप्त करने वाले हालदार में वे सभी गुण थे, जो एक कलाकार को खास बनाते हैं। हालदार ने झारेश्वर चक्रवर्ती, जधुनाथ पाल और बक्केश्वर पाल जैसे लोक चित्रकारों और कलाकारों से कई गुर सीखे। अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए इस रचनाकार ने तत्कालीन सरकारी वास्तुकार और मूर्तिकार लियोनार्ड जेनिंग्स से मूर्तिकला की बारीकियां भी समझीं।

‘फेदर इन द कैप’ को चरितार्थ तब किया जब उन्हें कुछ अन्य कलाकारों के साथ लंदन की इंडियन सोसाइटी ने अजंता की गुफाओं में चित्रों को कॉपी करने का काम सौंपा। भित्ति चित्र बनाने और कूची से कहानी कहने वाले के लिए ये नया अनुभव था। हालदार ने अपनी रचनात्मकता को और सजाया संवारा। जो सीखा उसे अपनी कुशलता से आगे प्रयोग भी किया।

1909 से 1911 तक वे अजंता में भित्तिचित्रों का डॉक्यूमेंटेशन किया। लक्ष्य एक ही था कि केव आर्ट को व्यापक भारतीय दर्शकों तक पहुंचाया जाना। 1921 में, उन्होंने एक और अभियान चलाया, इस बार बाघ गुफाओं में काम किया। हालदार ने जो सीखा उसे अपने आर्ट में समायोजित किया।

समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए, हालदार ने बुद्ध पर आधारित 32 चित्रों की एक पूरी श्रृंखला तैयार की। तीस कैनवास भारतीय इतिहास के प्रसंगों का संग्रह थे। उन्होंने उमर खय्याम के छंदों को भी चित्रों में उकेरा। महाभारत की कहानियों के प्रति उनकी व्याख्याओं में एक मजबूत आध्यात्मिक झुकाव दिखाई दिया। नतीजतन जनता और आलोचकों दोनों की निगाहों में आए और सराहे गए।

असित ने खुद को सिर्फ पेंटिंग और मूर्तिकला की दुनिया तक सीमित नहीं रखा। वे गीत,कविता और किताबें लिखने में माहिर थे तो प्रमुख पत्रिकाओं के लिए कई निबंध लिखने में भी उतने ही पारंगत। अंग्रेजी में ‘आर्ट एंड ट्रेडिशन’ और ‘आवर हेरिटेज इन आर्ट’, बांग्ला में ‘अजंता’, ‘भारतेर शिल्पकथा’, ‘भारतेर करुशिपला’ और हिंदी में ‘रूप दर्शिका’ जैसी कृतियाँ इस बहुमुखी, बहु-प्रतिभाशाली कलाकार ने लिखीं और कला के क्षेत्र में खास मुकाम हासिल किया।

हालदार ने 1923 में यूरोप का दौरा किया, कला को समझने के लिए। लेकिन महसूस किया कि यूरोपीय कला की कुछ सीमाएं हैं ऐसा हमारे यहां नहीं। भारतीयता का जश्न मनाती उनकी रचनाएं इसका प्रमाण हैं। महाभारत को सब्जेक्ट बनाकर खूब रचा लेकिन ये भी सच है कि संदेश गहरे थे। यशोदा और कृष्ण केवल एक धार्मिक पेंटिंग नहीं थी, बल्कि अनंत (कृष्ण द्वारा दर्शाए गए) और सीमित (यशोदा द्वारा दर्शाए गए) भावों का एक कलात्मक संयोजन था। उनकी उत्कृष्ट कृतियों में कृष्ण और यशोदा, भारत माता का जागरण, राय-राजा लोटस, कुणाल और अशोक, रासलीला, संगीत की लौ और प्रणाम शामिल हैं।

इनके चित्रों में संथाल लोक नृत्य,रासलीला ,अशोक व पुत्र कुणाल ,बसंत बाहर ,नाव वधू ,कच-देवयानी,प्रारब्ध ,अनजाना सफ़र ,झरना,द स्प्रिट ऑफ स्टॉर्म की खूब चर्चा होती है। इन्होंने टेम्परा में काम किया, ऑयल पेंटिंग में काम किया भित्ति चित्रण में कार्य किया, कैनवास में भी काम किया और कागज पर भी काम किया। लकड़ी पर पेंटिंग का नायाब तरीका इजाद किया जिसे लेसिट विधि कहते हैं।

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