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पुण्यतिथि विशेष: भारतीय राजनीत के ‘योगी’ को गढ़ने वाले महंत अवैद्यनाथ ने कैसे बदला भारतीय राजनीति का परिदृश्य

by
September 12, 2024
in राष्ट्रीय
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पुण्यतिथि विशेष: भारतीय राजनीत के ‘योगी’ को गढ़ने वाले महंत अवैद्यनाथ ने कैसे बदला भारतीय राजनीति का परिदृश्य
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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

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उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

पीएसएम/केआर

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

पीएसएम/केआर

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

पीएसएम/केआर

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

पीएसएम/केआर

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

— आईएएनएस

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नई, दिल्ली, 12 सितंबर (आईएएनएस)। साल था 1998। जगह उत्तराखंड का पंचूर गांव। कभी वन विभाग में रेंजर रहे आनंद सिंह बिष्ट के दरवाजे पर दस्तक होती है। उनकी पत्नी सावत्री देवी दरवाजा खोलती हैं। दरवाजे पर साधु के वेश में दो लोग खड़े थे। एक बुजुर्ग गुरु और साथ में 27 साल का युवा शिष्य। दोनों साधु सावित्री देवी से भिक्षा मांगते हैं।

सावित्री देवी ने उन्हें भिक्षा दी। फल, चावल और पैसे। भिक्षा देते हुए सावित्री देवी जोर से फफक कर रो पड़ी। इस पर अंदर से दौड़े आए आनंद सिंह के भी आंखों में आसूं आ गए, क्योंकि ये दोनों अपने घर की देहरी पर अपने बेटे अजय को दोबारा देख रहे थे। वो भी पूरे 4 साल बाद। साथ में थे गोरखनाथ पीठ के पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ।

उनका बेटा अजय सिंह बिष्ट अब योगी बन गया था। योगी आदित्यनाथ। वो भी गोरखपुर का सांसद। दरअसल अजय सिंह बिष्ट से महंत अवैद्यनाथ योगी बनने की प्रक्रिया पूरी करवा रहे थे। जिसमें योगी बनने के लिए सबसे पहले व्यक्ति को अपनी मां से ही भिक्षा मांग कर इस प्रक्रिया की शुरुआत करनी होती है।

ये सब संभव हुआ था उनके चाचा और गोरखनाथ पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की वजह से। उनका 28 मई 1921 को जन्म उत्तराखंड के कांदी गांव में हुआ था जो पंचूर से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है।

आज भारतीय राजनीति के ‘योगी’ को गढ़ने वाले गुरु की पुण्यतिथि पर जानेंगे कि कैसे उन्होंने अपनी कर्मशीलता से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचार को मजबूती दी।

अपने शुरुआती दिनों से ही वह राजनीति के प्रति काफी झुकाव रखते थे। इसके साथ उनके धार्मिक कार्यों में भी सक्रियता की वजह से योगी निवृत्तिनाथ से उनकी मुलाकात हुई। इसके बाद शुरू होती है उनकी धर्म और राजनीति में समानांतर और अनवरत यात्रा। उन्होंने योगी निवृत्तिनाथ के आध्यात्मिक दर्शन और नाथ पंथ के विचारों से प्रभावित होकर, गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ के बारे में सुना। वह दिग्विजयनाथ से मिले। इसके बाद दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, लेकिन नाथ संप्रदाय की शिक्षा पूरी नहीं होने के कारण तुरंत नियुक्ति नहीं कर सके। दो साल बाद, 8 फरवरी 1942 को, महंत दिग्विजयनाथ ने कृपाशंकर को अपना शिष्य बनाने के लिए नाथ संप्रदाय की विधिवत शिक्षा-दीक्षा दी। और उन्हें अपना शिष्य बनाकर नया नाम दिया अवैद्यनाथ।

अवैद्यनाथ ने गोरखनाथ मंदिर की व्यवस्था को संभालते हुए 1944 में गोरखपुर में हिंदू महासभा के अधिवेशन में भाग लिया। इस समय देश में चल रहे विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के बीच राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित रहने का निर्णय लिया। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, दिग्विजयनाथ को गिरफ्तार कर लिया गया और गोरखनाथ मंदिर की संपत्ति जब्त कर ली गई। इस कठिन स्थिति में, महंत अवैद्यनाथ ने नेपाल में रहकर गुप्त रूप से मंदिर की व्यवस्था बनाए रखने और दिग्विजयनाथ को निर्दोष साबित करने का प्रयास किया।

1962 में, उन्होंने गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश विधानसभा में कदम रखा और लगातार 1977 तक विधायक बने रहे। 1980 में मीनाक्षीपुरम में हुए धर्म परिवर्तन से आहत होकर, उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय लिया और हिंदू समाज की सामाजिक विषमता को दूर करने में लग गए। उन्होंने पांच बार विधानसभा और तीन बार लोकसभा का चुनाव जीता और ‘जनता लहर’ के दौरान भी अपराजेय रहे।

1989 में, वी पी सिंह के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने फिर से चुनाव में उतरने का निर्णय लिया और 1998 तक लगातार सांसद बने रहे। 1998 में, उन्होंने गोरक्षपीठ और गोरखपुर की सांसदी योगी आदित्यनाथ को सौंप कर भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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