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Home राष्ट्रीय

पर्यावरण के लिए बेहद अहम जूट पर पड़ रही है प्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन की मार

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September 16, 2024
in राष्ट्रीय
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पर्यावरण के लिए बेहद अहम जूट पर पड़ रही है प्लास्टिक और जलवायु परिवर्तन की मार
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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

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हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

आरके/एएस

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

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उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

आरके/एएस

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नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। रेशों में जूट भारत में कपास के बाद दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले कुछ सालों से सुनहरे रेशे के नाम से मशहूर जूट की खेती में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले चार दशकों में जूट उत्पादकों को कई तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। एक समय था जब सरकार ने जूट किसानों की सुरक्षा के लिए संरक्षण नीति बनाई थी। उस समय चीनी, चावल, सीमेंट समेत सभी फैक्ट्रियों के लिए कम से कम 30 फीसदी जूट के बोरे का इस्तेमाल करना अनिवार्य था। लेकिन बाद में प्लास्टिक बोरियों के प्रचलन की वजह से जूट की पैकेजिंग में धीरे-धीरे गिरावट आई। प्लास्टिक की बोरियों के धड़ल्ले से इस्तेमाल से घरेलू बाजार में जूट की मांग घटती चली गई। जिसके चलते जूट की खेती में काफी गिरावट आई है।

उल्लेखनीय है कि आज भी पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में करीब 1.4 करोड़ लोग जूट उत्पादन से अपनी आजीविका चलाते हैं। कोसी क्षेत्र कभी देश-दुनिया में जूट की खेती के लिए जाना जाता था। उत्पादन के मामले में यह इलाका पश्चिम बंगाल और असम के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादन केंद्र रहा है। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया और किशनगंज के लाखों किसानों के लिए जूट नकद आय का मुख्य स्रोत रहा है।

हालांकि इसके बाद कपड़ा और प्लास्टिक उद्योग के उभरने के बाद जूट पर बड़ी मार पड़ी है। तकनीक के मामले में भी जूट अपनी प्रतिस्पर्धी उद्योगों से पीछे रह गया था। यह और बात है कि प्रकृति के अनुकूल जूट की तुलना में अब प्लास्टिक ने धरती कहर ढाना शुरू कर दिया है। प्लास्टिक के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में इको-फ्रेंडली की अहमियत आज भी बरकरार है।

उत्पादकता बढ़ाने, गुणवत्ता में सुधार करने, जूट किसानों को अच्छे दाम दिलाने और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाने के लिए 2005 में राष्ट्रीय जूट नीति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य जूट उद्योग को विश्व स्तरीय अत्याधुनिक विनिर्माण क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाना है।

इसके अलावा, पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2024-25 सीजन के लिए कच्चे जूट के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को अपनी मंजूरी दे दी है। कच्चे जूट का एमएसपी 2024-25 सीजन के लिए 5,335 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। इससे उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत पर 64.8 प्रतिशत का रिटर्न सुनिश्चित होगा। 2024-25 सीजन के लिए घोषित कच्चे जूट का एमएसपी बजट 2018-19 में सरकार द्वारा घोषित उत्पादन की अखिल भारतीय भारित औसत लागत के कम से कम 1.5 गुना के स्तर पर एमएसपी निर्धारित करने के सिद्धांत के अनुरूप है।

इन सब पहल के बावजूद, प्लास्टिक की थैलियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल जूट उद्योग के लिए अभी भी बड़ी समस्या है। बड़ी कंपनियां पैकेजिंग के लिए जूट का इस्तेमाल करने में अभी भी कतरा रही हैं साथ ही, जलवायु परिवर्तन भी जूट की खेती पर कहर बरपा रहा है। जूट का पौधा है मौसम के प्रति बेहद संवेदनशील होता है। मौसम की थोड़ी सी भी प्रतिकूल स्थिति इस पौधे को नष्ट कर सकती है। पिछले कुछ सालों में मौसम चक्र लगातार असंतुलित हो रहा है, नतीजतन जूट उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। जलाशयों की कमी भी जूट की खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ठहरे हुए पानी के पारंपरिक स्रोत जैसे तालाब और पोखर आदि तेजी से कम या खत्म होते जा रहे हैं, जिसने जूट पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

–आईएएनएस

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