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फिरोज गांधी: जिन्होंने आजाद भारत के पहले वित्तीय घोटाले का किया खुलासा, महात्मा गांधी से थे प्रेरित

देशबन्धु by देशबन्धु
September 11, 2025
in ताज़ा समाचार
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नई दिल्ली, 11 सितंबर (आईएएनएस)। संसद में कार्यवाही चल रही थी। हालांकि, सदन में खामोशी छाई हुई थी। सत्ता पक्ष के सदस्य आराम से बैठे थे, उन्हें यकीन था कि सब कुछ उनके नियंत्रण में है, लेकिन तभी एक युवा और जोशीली आवाज गूंजी। “क्या यह सच नहीं है कि कुछ विशेष अधिकारियों और मंत्रियों के संरक्षण में सरकारी धन का दुरुपयोग हो रहा है?” यह सवाल था फिरोज गांधी का, जो न केवल भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दामाद थे, बल्कि एक निर्भीक सांसद भी थे।

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यह कोई सामान्य सवाल नहीं था, बल्कि यह ‘मूंदड़ा घोटाला’ था। यह वह क्षण था जिसने फिरोज गांधी को एक साधारण राजनेता से एक ऐसे शख्स में बदल दिया जिसने सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत की।

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फिरोज गांधी 1952 में रायबरेली से लोकसभा सांसद चुन लिए गए थे। उस समय, लोगों को उम्मीद थी कि वे नेहरू के दामाद के रूप में एक शांत और आरामदायक जीवन जिएंगे। लेकिन फिरोज ने साबित कर दिया कि वे किसी के प्रभाव में काम नहीं करते। उन्होंने संसद में अपनी पहली ही पारी में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसी जंग शुरू की, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।

साल था 1957 और उसी वर्ष मूंदड़ा घोटाला हुआ था, जिसने फिरोज की पहचान एक ईमानदार और शक्तिशाली सांसद के रूप में स्थापित की। उन्होंने संसद में जोरदार बहस की और बताया कि कैसे भारत सरकार की स्वामित्व वाली जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने कलकत्ता के एक व्यापारी हरिदास मूंदड़ा की छह कंपनियों में 1.2 करोड़ रुपए का निवेश किया था, जो वास्तव में घाटे में चल रही थीं। उन्होंने सरकार से सवाल किया कि क्या यह जनता के पैसे का दुरुपयोग नहीं है?

यह कोई छोटी बात नहीं थी। यह सीधे तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी और जवाहरलाल नेहरू की सरकार पर एक हमला था। फिरोज ने जो सबूत पेश किए, वे इतने मजबूत थे कि सरकार को झुकना पड़ा। नेहरू ने अपने दामाद के इस कदम की सराहना की, भले ही यह उनकी सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण बना। अंततः, कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा। फिरोज ने अपनी पत्नी इंदिरा को भी सरकारी मामलों में हस्तक्षेप न करने की सलाह दी थी।

12 सितंबर 1912 को बॉम्बे में एक पारसी परिवार में जन्मे फिरोज का बचपन का नाम फिरोज जहांगीर घांडी था। उनके पिता एक जाने-माने वकील थे, लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। उनके पिता के निधन के बाद, उनकी मां उन्हें लेकर इलाहाबाद आ गईं, जहां उनकी मुलाकात भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं से हुई। यह इलाहाबाद की वह मिट्टी थी, जिसने एक सामान्य युवा को क्रांतिकारी बना दिया।

जब फिरोज ने महात्मा गांधी का भाषण सुना, तो वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना सरनेम ‘घांडी’ से बदलकर ‘गांधी’ कर लिया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे जल्दी ही नेहरू परिवार के करीब आ गए और जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा से उनकी दोस्ती हुई। यह दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल गई, एक ऐसा प्यार जिसने इतिहास का रुख बदल दिया।

इंदिरा और फिरोज का रिश्ता कोई साधारण रिश्ता नहीं था। दोनों ही स्वतंत्रता आंदोलन की आग में तप रहे थे। 1942 में, जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, फिरोज और इंदिरा दोनों को जेल जाना पड़ा। ये वह समय था जब उनका रिश्ता और गहरा हुआ। उनकी शादी 1942 में हुई और इस शादी ने कई लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। लेकिन यह शादी सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं थी, बल्कि दो ऐसे व्यक्तियों का मिलन था जो देश के प्रति समर्पित थे।

शादी के बाद भी, फिरोज का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने कुछ समय के लिए “नेशनल हेराल्ड” और “नवजीवन” अखबारों को चलाने में मदद की। उन्होंने पत्रकारिता की दुनिया में भी अपनी छाप छोड़ी और अपनी निर्भीक लेखन शैली के लिए जाने गए।

उनकी राजनीति केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था, ऊर्जा नीति और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी अपनी राय रखी। उन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को भी बढ़ावा दिया।

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दुर्भाग्य से, उनकी राजनीतिक यात्रा छोटी रही। फिरोज को दिल का दौरा पड़ा और 8 सितंबर 1960 को मात्र 48 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

–आईएएनएस

वीकेयू/डीएससी

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