नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। साल 1948 और तारीख 17 सितंबर। हैदराबाद के निजाम आसफ जाह सप्तम ने भारतीय सेना के विरुद्ध सभी सैन्य अभियानों पर युद्ध विराम की घोषणा की, जो हैदराबाद को भारतीय संघ में मिलाने के इरादे से हैदराबाद में घुस आई थी।
1947 का साल, भारत की आजादी का साल था। एक राष्ट्र का जन्म हुआ, जिसकी रगों में सदियों की गुलामी के बाद एक नई उम्मीद दौड़ रही थी। लेकिन इस खुशी के बीच, एक गहरी उलझन भी थी। भारत के नक्शे के बीचों-बीच एक विशाल रियासत, हैदराबाद, आजाद रहने का सपना देख रहा था। यह कहानी उसी सपने के टूटने और भारत के एक होने की है।
हैदराबाद रियासत, जिसकी स्थापना 1724 में हुई थी, भारत की सबसे अमीर और सबसे बड़ी रियासतों में से एक थी। इसका क्षेत्रफल लगभग 82,000 वर्ग मील था, जो आज के कई देशों से भी बड़ा था। इसकी अपनी मुद्रा थी, अपना डाकघर था और अपनी सेना भी। निजाम आसफ जाह सप्तम, मीर उस्मान अली खान, दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक माने जाते थे। उनका राज वैभव और ऐश्वर्य का प्रतीक था।
लेकिन इस भव्यता के पीछे एक कड़वा सच छुपा था। हैदराबाद में लगभग 85 प्रतिशत आबादी हिंदू थी, जबकि शासन एक मुस्लिम निजाम और उनके अभिजात वर्ग के हाथों में था। जब भारत को आजादी मिली, तो सरदार वल्लभभाई पटेल ने सभी रियासतों से भारतीय संघ में विलय करने का आग्रह किया। अधिकतर रियासतें मान गईं, लेकिन निजाम ने फैसला किया कि उनका हैदराबाद एक स्वतंत्र राष्ट्र रहेगा।
निजाम का फैसला भारत के लिए एक बड़ी चुनौती था। हैदराबाद पूरी तरह से भारतीय भू-भाग से घिरा हुआ था। इसे ‘भारत के पेट में कैंसर’ कहा गया, क्योंकि एक स्वतंत्र और संभावित रूप से शत्रुतापूर्ण राष्ट्र की मौजूदगी भारत की सुरक्षा और एकता के लिए खतरा थी।
जब निजाम ने विलय से इनकार कर दिया, तो भारत ने धैर्य के साथ बातचीत शुरू की। 1947 में, दोनों पक्षों ने ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर किए, जिसका उद्देश्य एक साल तक यथास्थिति बनाए रखना था। लेकिन यह समझौता सिर्फ कागज पर था। अंदरूनी तौर पर, स्थिति बिगड़ती जा रही थी।
हैदराबाद में स्थिति को और भी बदतर बनाने वाला एक नया तत्व उभरा, जो था रजाकार। यह एक हिंसक, अर्धसैनिक मिलिशिया थी, जिसका नेतृत्व एक कट्टरपंथी नेता कासिम रिजवी कर रहा था। रजाकारों ने खुद को निजाम के साम्राज्य के रक्षक के रूप में पेश किया, लेकिन उनका असली काम हिंदू आबादी को आतंकित करना था। वे गांवों में आग लगा देते थे, लोगों को मारते थे और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते थे। उनका नारा था, “हम दिल्ली पर भी मार्च करेंगे।” उनकी हिंसा ने रियासत में अराजकता फैला दी और भारतीय सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा दिया।
जब सरदार पटेल को यह जानकारी मिली, तो उन्होंने महसूस किया कि शांतिपूर्ण समाधान अब संभव नहीं है। उन्होंने कहा, “हमारी नीति है कि हम रियासतों के साथ नरमी बरतें, लेकिन अगर कोई राज्य हमारे पेट में चाकू मारने की कोशिश करेगा, तो हम उसे सहन नहीं करेंगे।”
भारतीय सेना ने एक गुप्त अभियान की योजना बनाई, जिसे ‘ऑपरेशन पोलो’ नाम दिया गया। इस नाम के पीछे एक दिलचस्प कारण था। उस समय हैदराबाद में दुनिया के किसी भी शहर की तुलना में सबसे ज्यादा पोलो मैदान थे। यह एक ऐसा कोडनेम था, जो दुश्मन को कभी समझ नहीं आता।
योजना सीधी थी कि भारतीय सेना कई मोर्चों से एक साथ हैदराबाद में प्रवेश करेगी और जितनी जल्दी हो सके निजाम की सेना को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर करेगी। इस ऑपरेशन का उद्देश्य हैदराबाद पर कब्जा करना नहीं, बल्कि वहां की अराजकता को समाप्त करना और निजाम को बातचीत की मेज पर वापस लाना था।
13 सितंबर 1948 की सुबह, भारतीय सेना ने चार दिशाओं से हैदराबाद में प्रवेश किया। उत्तर से, लेफ्टिनेंट जनरल जेएन चौधरी के नेतृत्व में सेना ने सोलापुर से हमला किया। पूर्व से, विजयवाड़ा की दिशा से, मेजर जनरल एए रुद्र के नेतृत्व में एक टुकड़ी आगे बढ़ी। दक्षिण से, कुरनूल और बेल्लारी के रास्ते और पश्चिम से, औरंगाबाद की ओर से भी सेना ने प्रवेश किया।
भारतीय सेना की शक्ति और गति के सामने निजाम की शाही सेना और रजाकारों की मिलिशिया टिक नहीं पाई। रजाकारों की ट्रेनिंग और हथियार बहुत खराब थे। वे लड़ने के बजाय भागने लगे। उनका मनोबल तुरंत टूट गया।
भारतीय सेना ने पहले दिन ही कई महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा कर लिया। हर मोर्चे से, उन्हें मामूली प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यह स्पष्ट हो गया था कि निजाम की सेना भारत की संगठित और शक्तिशाली सेना के सामने कुछ भी नहीं थी।
ऑपरेशन शुरू होने के सिर्फ चार दिनों के भीतर, निजाम को अपनी हार का एहसास हो गया। उनकी सेना पूरी तरह से बिखर चुकी थी और उनकी रियासत के भीतर कोई उम्मीद बाकी नहीं थी। 17 सितंबर 1948 की शाम को, निजाम ने भारतीय सेना के विरुद्ध सभी सैन्य अभियानों पर युद्ध विराम की घोषणा की। यह सिर्फ एक सैन्य हार नहीं थी, बल्कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के सपने का अंत था।
निजाम ने भारतीय संघ के एजेंट जनरल केएम मुंशी से संपर्क किया और आत्मसमर्पण की इच्छा व्यक्त की। अगले दिन, 18 सितंबर को भारतीय सेना हैदराबाद शहर में दाखिल हुई। जनरल चौधरी ने निजाम के आत्मसमर्पण को स्वीकार किया और उन्हें भारतीय संघ में विलय के लिए मजबूर किया।
हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। निजाम को राजप्रमुख का पद दिया गया और उनकी रियासत का शांतिपूर्ण ढंग से भारतीय संघ में समावेश किया गया।
–आईएएनएस
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