नई दिल्ली, 20 सितंबर (आईएएनएस)। पंडित जितेंद्र अभिषेकी भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में एक ऐसा नाम है, जो भक्ति रस, हिंदुस्तानी रागों और मराठी थिएटर के पुनरुद्धार के लिए हमेशा याद किया जाएगा। अभिषेकी न केवल शास्त्रीय संगीत के गहन ज्ञाता थे, बल्कि उन्होंने भक्ति संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनका जीवन संगीत की साधना का प्रतीक था, जहां राग-रंगों के माध्यम से आध्यात्मिकता का समावेश हुआ।
गोवा के मंगेशी गांव में 21 सितंबर 1929 को जन्मे पंडित जितेंद्र अभिषेकी महान गायक, संगीतकार और विद्वान थे। अभिषेकी का जन्म एक संगीतमय परिवार में हुआ। उनके पिता बलवंतराव मंगेशी मंदिर के पुजारी और कीर्तनकार थे। वे प्रसिद्ध गायक मास्टर दीनानाथ मंगेशकर के शिष्य रहे, जो लता मंगेशकर और आशा भोसले के पिता थे। इस पारिवारिक परंपरा ने अभिषेकी को बचपन से ही संगीत की मिट्टी में लिपटा हुआ पाया।
मंगेशी मंदिर, जो भगवान शिव को समर्पित है, उनके संगीत जीवन का केंद्र रहा। उन्होंने संस्कृत साहित्य में डिग्री हासिल की, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है। संगीत शिक्षा के लिए उन्होंने कई गुरुओं की शरण ली। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर से ख्याल गायकी सीखी, पंडित पन्नालाल घोष से बांसुरी वादन, और उस्ताद अल्लादिया खां से किराना घराने की बारीकियां। इसके अलावा, वे पंडित भास्करबुवा बखले की शिष्य परंपरा से जुड़े। ये सभी गुरु उनके स्वरों को समृद्ध करने वाले स्तंभ बने।
अभिषेकी का संगीत सफर बहुआयामी था। 1950 के दशक में वे ऑल इंडिया रेडियो, मुंबई में शामिल हुए, जहां उन्होंने कई संगीतकारों के साथ सहयोग किया। रेडियो कार्यक्रमों के लिए उनकी रचनाएं प्रसिद्ध हुईं। लेकिन उनका असली कमाल मराठी थिएटर में आया। 1960 के दशक में जब मराठी नाट्य संगीत लुप्तप्राय हो रहा था, अभिषेकी ने इसे पुनर्जीवित किया। नाटकों जैसे ‘संगीत नाटक’ और ‘मृच्छकटिक’ में उनके संगीत निर्देशन ने थिएटर को नई जान फूंकी। उन्होंने मराठी, हिंदी और कोंकणी भाषाओं में सैकड़ों भजन रचे, जो आज भी मंदिरों और घरों में गूंजते हैं। उनका प्रसिद्ध भजन ‘श्रीराम तारक मंत्र’ और ‘हरि ॐ तत्सत्’ भक्ति संगीत के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में वे ख्याल, ध्रुपद और तराना के मर्मज्ञ थे। किराना घराने की उनकी गायकी में भाव और लय का अनोखा संगम था।
अभिषेकी की रचनात्मकता असीम थी। उनकी गायकी में 22 श्रुतियों का चमत्कार सुनाई देता था। उन्होंने फिल्मों में भी संगीत दिया, जैसे ‘झपाटलेला’ (1981) और ‘एक हंसी एक ही रात’। लेकिन वे शास्त्रीय संगीत को प्राथमिकता देते थे। उन्होंने संगीत शिक्षा पर जोर दिया और कई संस्थानों से जुड़े। 1990 के दशक में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला, जो उनके योगदान का प्रमाण था। लेकिन अभिषेकी जी सादगी पसंद थे। वे कहते थे, ‘संगीत आत्मा का आह्वान है, इसे व्यापार नहीं बनाना चाहिए।’
रागों के वैज्ञानिक पक्ष, श्रुति, स्वर और ताल के विशेषज्ञ पंडित जितेंद्र अभिषेकी का 7 नवंबर 1998 को निधन हो गया। उनकी मृत्यु के करीब तीन दशक बाद भी उनका प्रभाव बरकरार है। आज जब संगीत व्यावसायिक हो रहा है, अभिषेकी की सादगी याद आती है। 1929 से 1998 तक के 69 वर्षों में उन्होंने अमिट छाप छोड़ी। संगीत नाटक अकादमी और गोवा सरकार ने उनके नाम पर पुरस्कार शुरू किए हैं। युवा गायकों के लिए वे प्रेरणा स्रोत हैं।
–आईएएनएस
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