नई दिल्ली, 21 सितंबर (आईएएनएस)। हर साल जब दुर्गा पूजा और नवरात्रि का पर्व आता है, तो देशभर के पंडालों की रौनक देखने लायक होती है। बाजारों में सजावट, ढोल-नगाड़ों की आवाज, और मां दुर्गा की प्रतिमाओं की झलक से मन उत्सव की लय में डूबने लगता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस पर्व की रंगत में एक और रंग जुड़ गया है! और वो है ‘हरियाली’ का। अब यह त्योहार न सिर्फ आस्था का, बल्कि ‘प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी’ का प्रतीक भी बन रहा है।
2016 में रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘ग्रीन दुर्गा पूजा’ की अपील की थी। ग्रीन दुर्गा पूजा जिसमें परम्परा से समझौता भी नहीं और प्रकृति के प्रति आभार जताने में कोताही भी नहीं की जाती। देश के ऐसे कई राज्य हैं जहां गंभीरता से इस पर विचार किया गया और आम लोगों को खुद से जोड़ कर कारवां बढ़ाया जा रहा है।
झारखंड जैसे राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पूजा आयोजकों को स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं -मूर्तियां सिर्फ मिट्टी से बनें, रंगों में कोई रासायनिक तत्त्व न हो, सजावट में प्लास्टिक का प्रयोग न हो, और विसर्जन सिर्फ नियत तालाबों या कृत्रिम टैंकों में ही हो। रांची नगर निगम ने तो सिंगल-यूज प्लास्टिक के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। पंडालों को चेतावनी दी गई है कि अगर वे पर्यावरणीय नियमों का पालन नहीं करेंगे, तो कार्रवाई की जाएगी।
कोलकाता में ताला प्रतय पूजा कमिटी ने एक डीसेंट्रलाइज्ड वेस्ट टू फ्यूल यूनिट बनाई है ताकि खाने के बचे हिस्से से लेकर फूलों, प्लास्टिक और कागज तक सब कुछ ठोस ईंधन में बदला जाए। यही नहीं, प्रयागराज के आशारानी फाउंडेशन की महिलाओं ने गौ-गोबर और गोंद से बनी प्रतिमाओं को तैयार किया है, जो पूरी तरह जैविक और बायोडिग्रेडेबल हैं।
नागपुर जैसे शहर में, जहां पहले पीओपी (प्लास्टर ऑफ पेरिस) से बनी मूर्तियां आम बात थी, अब स्थिति उलट रही है। हाल ही में गणेशोत्सव की धूम रही। इसे लेकर एक रिपोर्ट बताती है कि विसर्जन के दूसरे ही दिन 94 फीसदी मूर्तियां मिट्टी की बनी पाई गईं। बदलाव धीमा जरूर है, लेकिन उम्मीद से भरा है।
इन बदलावों का असर साफ दिखता है। जब मूर्तियां जहरीले रंगों और केमिकल से मुक्त होती हैं, तो जल प्रदूषण कम होता है। जब सजावट में प्लास्टिक नहीं होता, तो विसर्जन के बाद तैरते कचरे से नदी-तालाबों की सांस नहीं घुटती। और जब छोटे कारीगरों से मिट्टी, गौ-गोबर या जूट की मूर्तियां खरीदी जाती हैं, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी पूजा का आशीर्वाद मिल जाता है।
ईको-फ्रेंडली विकल्प महंगे होते हैं, और सभी पूजा समितियां या लोग उन्हें वहन नहीं कर पाते। कई जगह विसर्जन के लिए पर्याप्त और सुरक्षित जलाशय नहीं हैं। प्लास्टिक और रासायनिक सजावट पर पूरी तरह रोक लगाना भी प्रशासन के लिए आसान नहीं है।
लेकिन इस सबके बावजूद, यह बदलाव एक उम्मीद जगाता है—कि हम भक्ति के साथ-साथ प्रकृति की पूजा भी सीख रहे हैं। मां दुर्गा की मूर्तियां सिर्फ शक्ति का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि यह बताने का जरिया बन रही हैं कि सच्ची पूजा वही है जिसमें प्रकृति को कोई नुकसान न हो।
पीएम मोदी ने भी तो मन की बात में कहा था, “त्योहार सिर्फ जश्न नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी भी है—कि जब हम पूजा‑पंडाल सजाएं, मूर्तियां विसर्जित करें, सजावट करें—तो ये सब ऐसा हो कि हमारी धरती और पानी को कोई नुकसान न पहुंचे।”
–आईएएनएस
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