नई दिल्ली, 22 सितंबर (आईएएनएस)। स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सोमवार को कहा कि नई माताओं में प्रसव के बाद अवसाद, चिंता और ऐसी अन्य स्थितियों से लड़ने में मदद के लिए प्रसवकालीन (पेरीनेटल) मातृ मानसिक स्वास्थ्य को राष्ट्रीय कार्यक्रमों में एकीकृत करने की तत्काल आवश्यकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 10 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं और शिशु को जन्म देने वाली 13 प्रतिशत महिलाएं मानसिक विकार, मुख्यतः अवसाद का अनुभव करती हैं।
भारत में प्रति वर्ष 2.5 करोड़ से अधिक बच्चे जन्म लेते हैं, लेकिन गर्भावस्था के दौरान और जन्म के एक वर्ष बाद (जिसे “प्रसवकालीन अवधि” कहा जाता है) मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त अधिकांश महिलाओं का पता नहीं चल पाता और न ही उनका उपचार हो पाता है। ऐसा खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में होता है।
भारत में प्रसवकालीन महिलाओं के बीच हाल ही में की गई एक व्यवस्थित समीक्षा में पाया गया कि समुदाय-आधारित अध्ययनों में प्रसवकालीन अवसाद की व्यापकता दर 14-24 प्रतिशत के बीच थी, जबकि कुछ मेटा-विश्लेषणों ने प्रसवोत्तर अवसाद के लिए लगभग 22 प्रतिशत का संयुक्त अनुमान प्रस्तुत किया था।
यद्यपि भारत में मातृ मृत्यु दर 2000 के दशक की शुरुआत से 50 प्रतिशत से ज्यादा घटी, अब ये प्रति 1,00,000 पर 97 हो गई है, मातृ आत्महत्या का अनुपात भी बढ़ रहा है। केरल में एक हालिया रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2020 में लगभग पांच में से एक मां की मौत का कारण आत्महत्या थी।
एम्स के प्रो. राजेश सागर ने कहा, “भारत में प्रसवकालीन मातृ मानसिक स्वास्थ्य को राष्ट्रीय कार्यक्रमों में शामिल करने की तत्काल आवश्यकता है।”
राष्ट्रीय राजधानी में प्रसवकालीन मानसिक स्वास्थ्य पर एक विशेषज्ञ परामर्श में बोलते हुए, विशेषज्ञ ने मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रही नई माताओं की सहायता के लिए एक समर्पित पहल की कमी पर चिंता जताई।
सागर ने कहा, “हालांकि राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति 2014, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 और अन्य नीतियों में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य का उल्लेख किया गया है, लेकिन कोई समर्पित कार्यक्रम या जांच तंत्र मौजूद नहीं है।”
निमहंस की प्रो. प्रभा चंद्रा सहित विशेषज्ञों ने डॉक्टरों, नर्सों और आशा कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण में कमियों, प्रासंगिक उपकरणों की कमी और उस ‘सामाजिक धब्बे’ पर प्रकाश डाला जो महिलाओं को सकारात्मक जांच के बाद भी मनोवैज्ञानिक सहायता लेने से रोकता है।
उन्होंने राज्य-विशिष्ट रणनीतियों, राज्यों के बीच सहयोग, क्षमता निर्माण और प्रसवपूर्व देखभाल के दौरान जरूरी जानकारी जुटाने पर जोर दिया।
जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ इंडिया में मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की प्रमुख डॉ. वाई.के. संध्या ने कहा, “यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि प्रसवकालीन मानसिक स्वास्थ्य को एक अलग विषय के रूप में न देखा जाए क्योंकि इससे प्रसवकालीन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त महिलाओं के प्रति नजरिया बदल जाता है। उनसे भेदभाव किया जाने लगता है; मेरा मानना है कि इसे गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को मिलने वाली नियमित प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल में शामिल किया जाना चाहिए, जिससे इसका लाभ मिल सके।”
–आईएएनएस
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