“आदि गुरु महादेव ने दिया सप्त ऋषियों को ज्ञान, वेद व्यास ने किया संकलन और प्रसूत हुई भारत की अलौकिक गुरु शिष्य- परंपरा : संस्कारधानी बनी शिक्षाधानी” (गुरु पूर्णिमा के पावन और पुनीत पर्व पर सादर समर्पित-प्राचीन काल से समृद्ध संस्कारधानी की गुरु-शिष्य परंपरा
-महर्षि जाबालि, भृगु, शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद, महर्षि महेश योगी और ओशो जैसे संतों ने शिष्यों का किया मार्गदर्शन) ——-
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“ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम:”
गुरु पूर्णिमा के दिन आदि गुरु महादेव ने सप्त ऋषियों को दिव्य ज्ञान दिया और सप्त ऋषियों ने उस ज्ञान की महिमा को विश्व में प्रतिष्ठित किया. बता दें कि वेदों में भगवान शिव के विभिन्न नामों का वर्णन किया गया है. अथर्ववेद में भगवान शिव को महादेव, शिव, शम्भू कहा गया है. यजुर्वेद में भोलेनाथ को रौद्र और कल्याणकारी कहा गया है. उपनिषद में शिव जी को गुरु और जगतगुरु के नाम से वर्णित किया गया है. वहीं ऋग्वेद में देवाधिदेव को रुद्र के नाम से संबोधित किया गया है. वाल्मिकी रामायण में भी भगवान शिव को परम गुरु की उपाधि दी गई है.
गुरु का यदि हम शाब्दिक अर्थ देखते हैं तो शास्त्रों में यह बताया गया है कि ‘गु’ अक्षर का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ का अर्थ निरोधक बताया गया है. ऐसे में जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है और अज्ञानता के मार्ग को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाता है, उन्हें ही गुरु का जाता है.
भगवान शिव हैं ज्ञान और योग के मुख्य स्रोत
बता दें कि शास्त्रों में सप्त ऋषियों के विषय में विस्तार से बताया गया है. इसके साथ यह भी बताया गया है कि सप्त ऋषियों का जन्म ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से हुआ था. इसलिए इन सप्त ऋषियों को ज्ञान-विज्ञान, धर्म, ज्योतिष और योग में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. यह सप्त ऋषि हैं- वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक. विशेष बात यह है कि सप्त ऋषियों को शिक्षा प्रदान करने का दायित्व भगवान शिव के पास था.
मान्यता है कि सर्वप्रथम जिन 7 लोगों को योग, कर्म और वैदिक ज्ञान प्राप्त हुआ था, उन्हें सप्त ऋषि के नाम से जाना जाने लगा. इसका अर्थ यह भी निकलता है कि भगवान शिव से ही योग, धर्म-कर्म, वैदिक ज्ञान का उद्गम हुआ था. यही कारण है कि हम भगवान शिव को आदिगुरु या आदियोगी के रूप में पूजते हैं.
गुरु पूर्णिमा के दिन ही वैदिक साहित्य के संकलन कर्ता एवं महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास के अवतरण हुआ था, इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. प्रथम गुरु हम सबकी माँ हैं और आदि गुरु महादेव हैं. जैंसे भगवान् को अपने भक्तों, माता पिता को अपने बच्चों, किसान को अपनी लहलहाती फसल, जौहरी को स्वर्ण आभूषण देखकर जैंसी प्रसन्नता होती है वैंसी प्रसन्नता गुरु को अपने शिष्यों को देखकर होती है.
गुरु-शिष्य की शाश्वत परंपरा ही भारतीय धर्म,सभ्यता और संस्कृति का मूलाधार है, भारतीय गुरु – शिष्य परंपरा का यही आदर्श रहा कि गुरु ने सदैव अपने शिष्य को अपने से आगे ले जाने का प्रयास किया है और उसी में परमानन्द की अनुभूति प्राप्त की है – शिष्य का आगे निकलना ही गुरु की सफलता है. सृष्टि का हर वो तत्व जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाकर मार्ग प्रशस्त करता है वह गुरु ही है. यद्यपि गुरु का शाब्दिक अर्थ अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला है परंतु गूढ़ अर्थ में जो आपको किसी भी परिस्थिति में गिरने न दे वह गुरु है, जैंसे भगवान् अपने भक्तों को और माता – पिता अपने बच्चों को संभालते हैं.
इतिहास साक्षी है कि आदिगुरु महादेव और श्रीहरि ने किसी भी परिस्थिति में अपने शिष्यों और भक्तों को गिरने नहीं दिया. वहीं भगवान् श्री राम और श्रीकृष्ण ने आदर्श शिष्य परंपरा को स्थापित किया. भक्त प्रहलाद, आदि शंकराचार्य, जाबालि, आरुणि, उपमन्यु, स्वामी विवेकानंद जैंसे शिष्यों ने नये प्रतिमान स्थापित किए हैं. अपने शिष्यों और आत्मीय जनों की असफलता पर जो हंसता है वो गुरु नहीं है निरा मूर्ख है क्योंकि वो उनकी असफलता का सबसे बड़ा भागीदार है.
कालांतर का त्रिपुरी हो या वर्तमान का जबलपुर, यहां गुरु-शिष्य की परंपरा सदैव देखने मिली. संस्कारधानी की माटी से कई संतों का जुड़ाव रहा जिनके शिष्य देश-विदेश में गुरु का मान बढ़ा रहे हैं. महर्षि जाबालि से लेकर भृगु, आदि शंकराचार्य, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश ओशो जैसे कई गुरु हैं जिनके शिष्य स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं. इसी तरह गुरुकुल के रूप में भेड़ाघाट के गोलकी मठ को भुलाया नहीं जा सकता, जहां देशभर के बच्चे तंत्र साधना की शिक्षा लेने आते थे. गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हम ऐसे गुरुजनों को याद करेंगे.
महर्षि जाबालि का उल्लेख रामायण के साथ ही नौ पुराणों और महर्षि जाबालि द्वारा विरचित जाबालदर्शनोपनिषद्, जाबालोपनिषद् और जाबाल्युपनिषद उपनिषदों में मिलता है. बाल्मीकि रामायण में महर्षि जाबालि का उल्लेख मिलता है. जो नर्मदा से चित्रकूट तक विचरण करते थे. जबलपुर में वे चट्टानों के नीचे तपस्या करते थे. तपस्वी महर्षि का नाम अमर और सार्थक रहे इसलिए इस क्षेत्र का नाम जाबालिपुरम रखा गया था, जिसका अपभ्रंश जबलपुर है I महर्षि जाबालि के गुरुकुल में गोत्र, वर्ण, वंश और जाति के नाम पर , विद्यार्थियों में भेदभाव नहीं था.
भरूच तक था महर्षि भृगु का क्षेत्र:
भेड़ाघाट का क्षेत्र महर्षि भृगु के नाम से जाना जाता है. यह उनकी तपस्थली थी. उनका क्षेत्र भरूच तक था. उनके वंशज जमदग्नि और परशुराम थे. वे भी इस क्षेत्र में भ्रमण कर तपस्या करते थे. इनका क्षेत्र मालवा और गुजरात तक था. कार्तवीर्य अर्जुन के समय त्रिपुरी का चरमोत्कर्ष हुआ परंतु भगवान परशुराम से युद्ध के उपरांत त्रिपुरी श्रीविहीन हो गई. फिर कलचुरी काल में त्रिपुरी का पुनः स्वर्ण युग आया और गोलकी तांत्रिक पीठ के नाम से गोलकी मठ की स्थापना हुई यह भारत का मध्यकाल तक तांत्रिक विश्वविद्यालय के रूप में प्रख्यात रहा.
यहाँ सद्भाव शंभू और सोमशंभू जैसे शैव आचार्य कुलपति रहे. आचार्य राजशेखर जैसे विद्वान भी त्रिपुरी में रहे. मध्यकाल में वीरांगना रानी दुर्गावती के समय गोंडवाना के स्वर्ण काल में नारी शिक्षा प्रारंभ हुई और विट्ठलनाथ जैसे महान संत 3 वर्ष तक गढ़ा में रहे. उन्होंने गुरुकुल में वैष्णव परंपरा के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया शुद्ध अद्वैत मत से पूजा पद्धति की शिक्षा प्रदान की. इस काल में पद्मनाभ भट्टाचार्य और लोंगाक्षि जैसे विद्वानों ने शिक्षा प्रदान की
आदि शंकराचार्य ने नर्मदाष्टक की रचना:
आदि शंकराचार्य भ्रमण के दौरान नर्मदा तट पहुंचे थे. उस दौरान भैरव मंदिर बाजनामठ का जीर्णोद्धार के साथ ही यहां संतों को आशीर्वाद दिया था. भ्रमण के दौरान सांकलघाट के पास गुफा में आदि शंकराचार्य ने तप भी किया था. आज भी वह गुफा सुरक्षित है. नर्मदा तट पर भ्रमण के दौरान ही आदि शंकराचार्य ने नर्मदाष्टक की रचना की थी.
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती:
ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का भी आशीष शहर के लोगों को मिला. जबलपुर के अलावा देश के अन्य हिस्सों के साथ ही विदेशों में भी उनके शिष्य हैं. ब्रह्मचारी चैतन्यानंद महाराज बताते हैं कि महाराज का जन्म सिवनी के ग्राम दिघौरी में हुआ लेकिन उन्होंने गंगा आश्रम परमहंसी गोटेगांव में तप किया. शहर को हमेशा उनका सानिध्य मिलता रहा और उन्होंने अपने शिष्यों का मार्गदर्शन किया. अब स्वामी सदानंद सरस्वती और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती शिष्यों का मार्गदर्शन कर रहे हैं.
महर्षि ने भावातीत ध्यान की दी शिक्षा:
महर्षि महेश योगी का जन्म भले ही छत्तीसगढ़ के राजिम शहर के पांडुका गांव में हुआ था. लेकिन जबलपुर से भी उनका नाता रहा है. यहां उन्होंने कुछ वर्ष तक फैक्ट्री में नौकरी भी की. शुरू से आध्यात्मिक लगाव के कारण 13 वर्ष तक शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण की. इसके बाद वे भावातीत ध्यान के कारण वे देश दुनिया पहचाने जाने लगे. इसके बाद वे हालैंड में जाकर बस गए और वहीं से लोगों को शिक्षा देते रहे. शहर में आज भी कई शिक्षण संस्थान महर्षि के नाम से संचालित हो रहे हैं.
ओशो तर्कों से करते थे प्रहार:
आचार्य रजनीश ओशो हमेशा विवादों से घिरे रहते थे. लेकिन उनकी खासियत थी कि वे अपने तर्कों और सभी धर्मों में व्याप्त भ्रांतियों पर तीखा प्रहार करते थे. उन्होंने कुछ ऐसे प्रश्नों को हल करने का वीरोचित प्रयास किया जो अभी तक अनुत्तरित थे. उनकी विद्वता और आकर्षक व्यक्तित्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कुछ ही वर्षों के अल्पकाल में विश्व के अनेक देशों में उनके शिष्यों की संख्या हजारों में पहुंच गई उनकी सरस वाणी सुनने के लिए उनके शिष्यों का अटूट क्रम बना रहता था. जबलपुर में वे कई साल रहे. इस दौरान वे महाकौशल कालेज में शिक्षक भी रहे.
जबलपुर को आचार्य विनोबा भावे ने संस्कारधानी नाम से संबोधित किया था और अब इसे मध्यप्रदेश की संस्कार राजधानी भी कहा जाता है. जबलपुर में चारों युगों की गुरु शिष्य – परंपरा का सौम्य समाहार दृष्टिगोचर होता है और वर्तमान में मध्यप्रदेश में सर्वाधिक विविध संकायों के विश्वविद्यालय जबलपुर में होने के कारण इसे शिक्षाधानी कहना अतिशयोक्ति न होगी.
डॉ आनंद सिंह राणा विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग श्रीजानकीरमण महाविद्यालय जबलपुर एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत