(भुजरियों (कजलियों) की राम राम भाद्रपद कृष्ण पक्ष प्रतिपदा तदनुसार 10 अगस्त भाई-बहिन के विजय पर्व की अनंत कोटि शुभकामनाएं।)
भारत में पर्व युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परम्पराओं, प्रथाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आदर्शों, नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक मूल्यों का वह मूर्त प्रतिबिम्ब हैं जो जन-जन के किसी एक वर्ग अथवा स्तर-विशेष की झाँकी ही प्रस्तुत नहीं करते, वरन् सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं।
श्रावण मास में रक्षाबंधन के अगले दिन भाद्रपद कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को भुजरिया पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रुप से बुंदेलखंड का लोकपर्व है।
एक समय था,जब पूरे भारतवर्ष में यह सामाजिक समरसता का पर्व धूमधाम से मनाया जाता था, परन्तु कल्चरल मार्क्सिज्म, मिशनरियों और तथाकथित सेक्युलरों के षड्यंत्र के चलते हिंदू पर्व और त्योहारों दुष्प्रभाव पड़ा है।
इस कड़ी में कजलियों का पर्व भी शिकार बना और सीमित होता जा रहा है, इसलिए समय रहते सामाजिक समरसता की स्थापना के उद्देश्य से पुनः इस पर्व का लोकव्यापीकरण करना आवश्यक है।
एतदर्थ संस्कारधानी में 13 अप्रैल सन् 2023 में संदीप जैन के भगीरथ प्रयास से जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य गरिमामय उपस्थिति में समरसता सेवा संगठन की स्थापना हुई।
समरसता सेवा संगठन एक सामाजिक संगठन है जो “सबको जाने, सबको माने” के सिद्धांत पर काम करता है, जिसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति और परंपराओं के अनुसार सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना है। यह संगठन विभिन्न जातियों और समाजों के आराध्यों की जयंती मनाकर उनके विचारों को सभी के सामने लाने का प्रयास करता है।
समरसता सेवा संगठन का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना है, इसका तात्पर्य है कि सभी को समान रूप से स्वीकार करना, जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता को दूर करना,और लोगों के बीच प्रेम और सद्भाव बढ़ाना है।
समरसता सेवा संगठन, जबलपुर में सक्रिय है और विभिन्न सामाजिक गतिविधियों का आयोजन करता है उदाहरण के लिए, 19 मार्च 2025 को, “समरसता होली महोत्सव” का आयोजन किया गया था, जिसमें एक विराट समरंग यात्रा और सांस्कृतिक संध्या शामिल थी।
समरसता सेवा संगठन का गठन भारतीय सनातन परम्परा और संस्कृति के परिपेक्ष्य में सामाजिक समरसता के लिए कार्य करना है । जिससे हम सभी लोग देश को समरस और समर्थ बनाने में अपना भी कुछ योगदान दे सके ।
इस परिप्रेक्ष्य में भाद्रपद कृष्ण पक्ष प्रतिपदा तदनुसार 10 अगस्त को समरसता सेवा संगठन के तत्वावधान में जबलपुर में सामाजिक समरसता के प्रतीक हनुमान ताल में सार्वजनिक रुप से कजलियां महोत्सव के वृहत् आयोजन किया जाएगा।
आइये कजलियां पर्व के ऐतिहासिक और सामरिक इतिहास को जानते हैं।
द्वापर युग के महाभारत की गाथा की पुनरावृत्ति है कलयुग में आल्हाखण्ड की गाथा,परंतु केवल श्रीकृष्ण नहीं हैं अन्यथा सभी पात्रों की पुनरावृत्ति आल्हाखण्ड में हुई। उदाहरण के लिए युधिष्ठिर – आल्हा, भीमसेन- ऊदल, ब्रह्मानंद – अर्जुन, दुर्योधन – पृथ्वीराज चौहान, शकुनि – माहिल और बेला – द्रोपदी के रुप में पुनर्जन्म लेते हैं।
महोबा के राजा परमाल देव के यहाँ आल्हा – ऊदल सेनाओं के प्रमुख बन जाते हैं। सब कुछ ठीक चलता रहता है परंतु एक षडयंत्र के चलते उरई के राजा मामा माहिल सन् 1181 में राजा परमाल देव को भड़का देते हैं परिणामस्वरूप आल्हा – ऊदल को महोबा से निष्कासित कर दिया जाता है। तदुपरांत आल्हा-ऊदल कन्नौज में शरण लेते हैं।
आल्हा – ऊदल के देश निकाला की खबर माहिल पृथ्वीराज चौहान को देते हैं और महोबा पर आक्रमण करने के लिए उकसाते हैं क्योंकि महोबा धन – धान्य से बहुत ही सम्पन्न था। नौलखा हार, पारस पत्थर और उड़न बछेरों प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे।
उधर आल्हा-ऊदल के चले जाने उनकी बहन चंद्रावलि दुख के सागर में डूब जाती है और रह रहकर याद करती है और अपने मायके, पिता राजा परमाल देव के यहाँ आ जाती है।
चंद्रावलि महोबा में अपने भाइयों का न पाकर बहुत दुखी होती है और रक्षाबंधन के लिए अपने भाईयों को संदेश भेजती है परंतु कोई उत्तर नहीं मिलता है। भाईयों के वियोग में चंद्रावलि और अन्य स्त्रियाँ भुजरिया गीत गाती हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में इसे भोजली कहा जाता है, स्त्रियों के द्वारा गाये जाने वाले गीत में मायके ,सखियों, भाइयों का बहुत सुंदर करूणा, स्मृति और नारी मन की व्यथा का चित्रण मिलता है।
अंततः रक्षाबंधन के कुछ दिन पहले पृथ्वीराज चौहान, माहिल के सुझाव पर महोबा घेर लेते हैं। राजा परमाल देव सामना करने की स्थिति में नहीं होते हैं इसलिए चंद्रावलि नौलखा हार, पारस पत्थर सहित अन्य बहुमूल्य साम्रगी देने के लिए तैयार हो जाते हैं परंतु चंद्रावलि वीरांगना थीं इसलिए वे युद्ध आरंभ कर देती हैं। घमासान युद्ध होता है परंतु विजय किसी की निश्चित नहीं होती है।युद्ध में माहिल के पुत्रों का बलिदान होता है।
उधर कन्नौज में चंद्रावलि का पत्र मिलता है परंतु आल्हा-ऊदल को जिन शर्तों पर देश निकाला दिया था, उनके अनुसार महोबा जाना मुश्किल था। आल्हा चुप्पी साध लेते हैं परंतु ऊदल वेश बदलकर अपनी बहन चंद्रावलि के लिए निकल पड़ते हैं।
इधर महोबा में बड़े संकट में रक्षाबंधन होता है और दूसरे दिन कीरतसागर में भुजरियों को सिराने के लिए चंद्रावलि अपनी सखियों के साथ पहुंचती हैं परंतु पृथ्वीराज चौहान की सेना पुनः घेर लेती है तथा विसर्जन के लिए मना कर दिया जाता है।
युद्ध पुनः आरंभ हो जाता है तभी वेश बदले ऊदल और कन्नौज के युवराज लाखन पहुंच जाते हैं और युद्ध घमासान हो जाता है, इसे ही कीरतसागर भुजरियों के युद्ध के नाम से जाना जाता है। एक पहर के युद्ध में ऊदल और लाखन पृथ्वीराज चौहान की सेना को खदेड़ देते हैं और फिर ऊदल और लाखन अपनी बहन चंद्रावलि और उनकी सखियों की भुजरियों को कीरतसागर में सिरवाते हैं।
इसी बीच सिराते समय चंद्रावलि अपनी सखियों से कहती हैं कि ये वेश बदले योद्धा ऊदल भैय्या जैंसे लगता है, ये आवाज ऊदल के कानों में पड़ती है वो मुस्कराकर चंद्रावलि की ओर देखते हैं तभी चंद्रावलि की आंखें अपने भाई से मिलती हैं और एक पहचान भी देख लेती हैं और फूट-फूटकर रोने लगती हैं क्योंकि वे ऊदल को पहचान जाती हैं, अब ऊदल से नहीं रहा जाता है और वे वेश उतारकर अपनी बहिन चंद्रावलि के चरण स्पर्श करते हैं, और आँसुओं की धार लग जाती है।
तदुपरांत आन – बान – शान के साथ बहनें कीरतसागर में भुजरियों को विसर्जित करती हैं। उसके बाद आल्हा मनौआ होता है, इसकी फिर कभी चर्चा होगी।यह उपाख्यान मूलतः जगनिक के आल्हाखड से ही है परंतु जनश्रुतियों को भी लिया है।
महान् लोक कवि जगनिक के वीर रस प्रधान काव्य आल्हाखंड में वर्णित कथा के आलोक में यह पर्व जहाँ एक ओर भाई – बहिन के प्रेम और विजय का प्रतीक है, तो वहीं दूसरी ओर अच्छी बारिश, फसल एवं सुख-समृद्धि की कामना के लिए भी मनाया जाता है। इसे कजलियों का पर्व भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ में इसे भोजली कहा जाता है।
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यह पर्व एक समय संपूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता था और कजलियां मिलन के माध्यम से सुख – दुख साझा किए जाते थे साथ ही बैर भाव मिटा दिए जाते थे। यह पर्व समाज के सभी वर्गों के पारस्परिक मिलन और समरसता का प्रतीक है।
डॉ. आनंद सिंह राणा, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत।