जबलपुर. रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय रादुविवि कुलगुरु की नियुक्ति पर अब प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा की संसदीय समिति के अध्यक्ष सासंद दिग्विजय सिंह ने सवाल उठाया हैं. श्री सिंह ने इस संबंध में केंद्रीय शिक्षा मंत्री, राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को पत्र लिखा हैं. उन्होंने पत्र में कहा हैं कि देश की उच्च शिक्षा प्रणाली की साख एक बार फिर सवालों के घेरे में है.
वरिष्ठ सांसद एवं राज्यसभा में संसद की शिक्षा, महिला एवं बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष श्री सिंह ने केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान, मध्यप्रदेश के राज्यपाल, एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को एक पत्र लिखकर रादुविवि के कुलगुरु प्रो. राजेश कुमार वर्मा की नियुक्ति को लेकर गंभीर अनियमितताओं की ओर संकेत किया है.
ज्ञात हो कि रादुविवि के वर्तमान कुलपति प्रोफेसर राजेश कुमार वर्मा की मूल नियुक्ति प्राध्यापक के रूप में ही कानूनी रूप से अमान्य थी. अब जब उनका कुलगुरु के पद पर पदोन्नयन हुआ है, तो यह सवाल और भी गंभीर हो गया है कि क्या एक अवैध नियुक्ति से शुरू हुआ सफर, अब विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पद तक भी नियमों की बलि चढ़ाकर पहुँचा है?
एनएसयूआई जबलपुर लगातार उचित माध्यमों से इस मुद्दे पर हमलावर रही है. मामला इस बार विधानसभा तक भी पहुंच चुका है. इसी कड़ी में एनएसयूआई प्रदेश उपाध्यक्ष अमित मिश्रा ने इस मामले की शिकायत स्वयं वरिष्ठ सांसद श्री सिंह को सौंपी. शिकायत की गंभीरता को देखते हुए श्री सिंह ने तुरंत केंद्रीय शिक्षा मंत्री श्री प्रधान, मध्यप्रदेश के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को एक विस्तृत पत्र भेजा, जिसमें प्रो. वर्मा की नियुक्ति प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं.
बिना शोध पत्र प्रकाशन के कैसे मिली नियुक्ति
पत्र के अनुसार, वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (एमपीपीएससी) द्वारा जारी विज्ञापन में स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि प्रोफेसर पद हेतु वे व्यक्ति पात्र होंगे जिनका उच्च गुणवत्ता का शोध कार्य रहा हो एवं पीएच.डी. डिग्री और कम से कम दस वर्षों का शिक्षण अनुभव अनिवार्य है लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि प्रो. राजेश कुमार वर्मा ने अपनी पीएच.डी. डिग्री 25 नवम्बर 2008 को प्राप्त की थी और केवल दो महीने बाद वे इस पद के लिए आवेदन कर दिया और चयनित हो गए.
जबकि उक्त दिनांक तक उनके द्वारा कोई भी प्रतिष्ठित शोध पत्रिका में शोध पत्र का प्रकाशन नहीं किया गया था. न्यायिक निर्णयों और यूजीसी नियमों के अनुसार, शिक्षण अनुभव की गणना पीएच.डी. के बाद ही की जाती है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि प्रो. वर्मा विज्ञापन की पात्रता को पूरा ही नहीं करते थे.
सुनियोजित नियुक्ति घोटाले का आरोप
पत्र में आरोप लगाया गया हैं कि यह कोई साधारण चूक नहीं, बल्कि एक सुनियोजित नियुक्ति घोटाला प्रतीत होता है. एक ओर जहां हजारों योग्य उम्मीदवार उचित अवसर के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति झूठी योग्यता और नियमों की अनदेखी करके न केवल प्रोफेसर बना, बल्कि अब विश्वविद्यालय का कुलपति भी बन गया.
मूल नियुक्ति ही अवैधानिक
श्री सिंह ने इस नियुक्ति को कथित तौर पर ‘शैक्षणिक नैतिकता की हत्या’ करार देते हुए मांग की है कि अगर प्रो. वर्मा की मूल नियुक्ति ही गैरकानूनी थी, तो फिर उनकी पदोन्नति को भी तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए. यह मामला न केवल एक व्यक्ति की नियुक्ति का है, बल्कि पूरी व्यवस्था की पारदर्शिता, निष्पक्षता और योग्य उम्मीदवारों के साथ न्याय का है. इसके साथ ही श्री सिंह ने यह भी सवाल उठाया कि क्या मध्य प्रदेश में कुलपति की नियुक्तियां भी अब पैसे और पहचान की राजनी
ति का शिकार हो चुकी हैं? उन्होंने मांग की है कि न केवल प्रो. वर्मा की नियुक्ति की न्यायिक जांच कराई जाए, बल्कि राज्य के अन्य विश्वविद्यालयों में हुई सभी कुलपति नियुक्तियों की स्वतंत्र जांच भी आवश्यक है. यदि शिक्षा में योग्यता नहीं, तो फिर किस क्षेत्र में होगी? यदि विश्वविद्यालयों में भी साजिशें होंगी, तो भविष्य की नींव कौन रखेगा?