नई दिल्ली, 13 दिसंबर (आईएएनएस)। 20वीं सदी के मध्य की बात है। लंदन में एक विश्व-प्रसिद्ध वायलिन वादक अपने करियर के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा था। तनाव और थकान ने उनके शरीर को जकड़ लिया था। इस महान कलाकार का नाम था येहुदी मेनुहिन। जब उन्हें भारत के एक दुबले-पतले, लेकिन असाधारण रूप से समर्पित योग गुरु बीकेएस आयंगर से मिलवाया गया, तो शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह मुलाकात केवल उनका करियर ही नहीं, बल्कि वैश्विक योग की दिशा हमेशा के लिए बदल देगी।
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नई दिल्ली, 13 दिसंबर (आईएएनएस)। 20वीं सदी के मध्य की बात है। लंदन में एक विश्व-प्रसिद्ध वायलिन वादक अपने करियर के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा था। तनाव और थकान ने उनके शरीर को जकड़ लिया था। इस महान कलाकार का नाम था येहुदी मेनुहिन। जब उन्हें भारत के एक दुबले-पतले, लेकिन असाधारण रूप से समर्पित योग गुरु बीकेएस आयंगर से मिलवाया गया, तो शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह मुलाकात केवल उनका करियर ही नहीं, बल्कि वैश्विक योग की दिशा हमेशा के लिए बदल देगी।
मेनुहिन न सिर्फ आयंगर के शिष्य बने, बल्कि बीकेएस आयंगर के सबसे बड़े समर्थक भी बने। 1954 में, मेनुहिन के प्रोत्साहन पर, आयंगर यूरोप पहुंचे। यहीं से योग का वैश्विक विस्तार शुरू हुआ। कुछ ही दशकों में, टाइम पत्रिका (2004) ने उन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल किया और भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री (1991), पद्म भूषण (2002) और पद्म विभूषण (2014) जैसे सर्वोच्च सम्मानों से नवाजा।
बीकेएस आयंगर का जन्म 1918 में बेलूर, कर्नाटक में हुआ था। उनका पूरा नाम बेल्लुर कृष्णामचार सुंदरराजा आयंगर था। उनका बचपन गरीबी, कुपोषण और इन्फ्लूएंजा महामारी के प्रकोप से घिरा रहा। वे अक्सर मलेरिया, तपेदिक और टाइफाइड से जूझते रहते थे। 14 साल की उम्र तक उनका स्वास्थ्य इतना खराब था कि वे खुद को 'अनाकर्षक रूप से निकला हुआ पेट, पतली भुजाओं और पतले पैरों' वाला बताते थे। उनकी शारीरिक कठोरता इतनी अधिक थी कि वे झुककर अपनी उंगलियों से घुटनों को भी मुश्किल से छू पाते थे।
यही दुर्बलता उनके योग दर्शन का आधार बनी। उनके लिए योग केवल आध्यात्मिक खोज या फिटनेस नहीं था, यह अस्तित्व और स्वास्थ्य के लिए एक जीवन रेखा था। एक कमजोर शरीर के लिए आसन में मामूली त्रुटि भी हानिकारक हो सकती थी। इसी कारण, आयंगर को 'सटीक संरेखण' और प्रॉप्स के उपयोग की आवश्यकता महसूस हुई।
15 साल की उम्र में, उन्होंने मैसूर में अपने बहनोई, महान योग गुरु टी कृष्णामचार्य के मार्गदर्शन में योग सीखना शुरू किया। हालांकि, उनके जीवन में सबसे बड़ा परिवर्तन 1937 में आया, जब उन्हें कृष्णामचार्य ने पुणे में शिक्षण कार्य के लिए भेज दिया। पुणे में, आयंगर अकेले थे, उनके पास न तो पर्याप्त संसाधन थे और न ही गुरु का सीधा मार्गदर्शन।
इस अलगाव ने उन्हें प्रत्येक आसन पर गहराई से विचार करने के लिए मजबूर किया। उन्होंने आसन को गति (विन्यास) के रूप में नहीं, बल्कि 'बुद्धिमान कार्रवाई' और परिशुद्धता के रूप में देखा। इस गहन, अनुभवात्मक अभ्यास के दौरान ही उन्होंने महसूस किया कि शारीरिक सीमाओं या चोटों से जूझ रहे लोगों को योग से वंचित नहीं रहना चाहिए। यहीं से 'अयंगर योग' का सबसे बड़ा नवाचार, प्रॉप्स (ब्लॉक, बेल्ट, कंबल, दीवार की रस्सियां) का उपयोग जन्म लेता है।
योग प्रॉप्स (जैसे ब्लॉक और स्ट्रैप्स) ने योग को सभी के लिए सुलभ बना दिया है, क्योंकि वे सही शारीरिक मुद्रा (अलाइनमेंट) बनाए रखने और कठिन आसनों में भी शरीर को सहारा देकर हर किसी को बिना किसी शारीरिक सीमा के योग का पूरा लाभ लेने में मदद करते हैं। प्रॉप्स लचीलेपन, शक्ति या अनुभव के स्तर की परवाह किए बिना, योग को सार्वभौमिक बनाते हैं।
आयंगर के अनुसार, लंबे समय तक आसन को धारण करने से 'मांसपेशियों की यात्रा' शुरू होती है, जो संरचनात्मक विकृतियों को ठीक करती है और आंतरिक अंगों को लाभ पहुंचाती है। यह लंबा ठहराव 'मानसिक बकबक' को शांत करने में मदद करता है, जो सीधे धारणा और ध्यान की ओर ले जाता है।
'अयंगर योग' अपनी सटीकता के कारण एक प्रभावी चिकित्सीय मॉडल बन गया। इसका उद्देश्य शारीरिक विकृति विज्ञान को संबोधित करना था। प्रॉप्स की सहायता से अस्थमा, उच्च रक्तचाप, रीढ़ की हड्डी के डेसिकेशन और पुरानी थकान जैसी समस्याओं के लिए योग को एक व्यक्तिगत खुराक में ढाला गया। यह पद्धति योग को 'फिटनेस' से उठाकर 'पुनर्वास विज्ञान' के स्तर पर ले आई।
उनके साहित्यिक कार्य ने इस पद्धति को संहिताबद्ध किया। उनकी मौलिक कृति, 'लाइट ऑन योगा' (योग दीपिका), जो 1966 से निरंतर छप रही है और 18 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है, आज भी योग शिक्षा में एक मानक पाठ है। उनकी 'लाइट ऑन द योग सूत्र ऑफ पतंजलि' ने अमूर्त दर्शन को मूर्त शारीरिक अनुभव से जोड़कर एक अनूठी अभ्यास-आधारित मीमांसा प्रस्तुत की, जिससे योग के आध्यात्मिक सोपान (धारणा, ध्यान) भौतिक अभ्यास से सीधे जुड़ गए।
1975 में, उन्होंने अपनी दिवंगत पत्नी रमामणि की स्मृति में पुणे में रमामणि आयंगर स्मारक योग संस्थान (आरआईएमवाईआई) की स्थापना की। यह संस्थान 'अयंगर योग' के कठोर शिक्षक प्रशिक्षण मानकों और गुणवत्ता की अखंडता को बनाए रखने वाला वैश्विक केंद्र बन गया।
--आईएएनएस
वीकेयू/डीकेपी
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