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Home ताज़ा समाचार

शिक्षक दिवस का मतलब मेज पर फूल रखना नहीं है: आचार्य प्रशांत

देशबन्धु by देशबन्धु
September 5, 2025
in ताज़ा समाचार, राष्ट्रीय
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नई दिल्ली. शिक्षक दिवस पर दार्शनिक और लेखक आचार्य प्रशांत ने देश के शिक्षकों को नमन किया और उन्हें समाज के भविष्य का सच्चा संरक्षक बताया. उन्होंने आग्रह किया कि इस दिन को कर्मकांडों और अभिवादनों से ऊपर उठकर शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य स्पष्टता, जिज्ञासा और आंतरिक शक्ति के पोषण पर चिंतन जागृत करना चाहिए.

उन्होंने कहा, “मनुष्य दो बार जन्म लेता है. पहला जैविक है और दूसरा, जो वास्तव में मानवीय है, स्पष्टता का जन्म है. स्कूल और शिक्षक इसी दूसरे जन्म के लिए हैं. इसके बिना हम कुशल पेशेवर तो बना सकते हैं. लेकिन, उन्हें मनुष्य के रूप में अस्पष्ट और असुरक्षित छोड़ सकते हैं.”

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आचार्य प्रशांत ने कहा कि जिन राष्ट्रों ने शिक्षकों का सम्मान किया, वे फले-फूले, जबकि जिन राष्ट्रों ने उनकी उपेक्षा की, वे धन या आकार की परवाह किए बिना क्षयग्रस्त हो गए. उन्होंने कहा, “भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, लेकिन इसमें एक ऐसी व्यवस्था का अभाव है, जहां वास्तविक शिक्षक फल-फूल सकें और युवा मन स्वतंत्र रूप से सोच सकें.”

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उन्होंने वर्तमान चुनौतियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि शिक्षण को एक बुलावे के बजाय एक सुरक्षित करियर के रूप में देखा जाने लगा है. आचार्य प्रशांत ने कहा, “एक जागरूक समाज में, शिक्षण सर्वोच्च पेशा है, न कि साधारणता का आश्रय. फिर भी, पद रिक्त पड़े हैं, कई शिक्षक अशिक्षित हैं, और कक्षाएं अधूरी रह जाती हैं, क्योंकि शिक्षकों को चुनाव और सर्वेक्षण कार्यों में लगा दिया जाता है. हमने शिक्षकों को राज्य के क्लर्क काम के लिए सस्ते श्रम में बदल दिया है, जबकि युवा मन उपेक्षित हैं. यह लापरवाही नहीं, विश्वासघात है. जब शिक्षण की भूमिका का इतना तिरस्कार किया जाता है, तो युवा कैसे प्रेरित हो सकते हैं?”

उन्होंने कहा कि प्रशासनिक विफलताओं के परे एक गहरा क्षय छिपा है, शिक्षा रटंत विद्या, परीक्षा के अंकों और नौकरी तक सीमित हो गई है. छात्रों को बताया जाता है कि जीवन का मूल्य तभी है, जब वे असंभव लक्ष्यों को प्राप्त करें, जबकि उन्हें यह पूछने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती कि वे वास्तव में कौन हैं. इससे मन घुटता है और कई दुखद मामलों में आत्म-क्षति भी होती है. दोष छात्र का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का है, जो उस शिक्षा को रोकती है, जो सबसे महत्वपूर्ण है, आत्म-शिक्षा.

आचार्य प्रशांत ने शिक्षा की दो धाराओं की आवश्यकता पर बल दिया. जीवन को क्रियाशील बनाए रखने के लिए हमें विश्व का ज्ञान चाहिए, जिसमें विज्ञान, भाषा, इतिहास, तकनीक शामिल हैं, लेकिन उतना ही आवश्यक है, स्वयं का ज्ञान. यह जानना कि ज्ञान कहां काम आता है और कहां नहीं. इसके बिना हम बिना ज्ञान के चतुराई और बिना पूर्णता के उपलब्धि प्राप्त करते हैं.

उन्होंने वेदांत का हवाला देते हुए इन्हें अविद्या और विद्या कहा. एक जीवन को व्यावहारिक बनाती है, दूसरी जीवन को जीने योग्य बनाती है.

शिक्षकों के लिए उन्होंने न केवल पाठ योजनाओं पर बल्कि व्यक्तिगत स्पष्टता पर भी ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया. आप जो पढ़ाते हैं, उससे पहले आप कौन हैं, यह बात सामने आती है. छात्र पहले शिक्षक के अस्तित्व को समझते हैं, उसके बाद ही उनके शब्दों को. सच्चा बंधन नियंत्रण का नहीं, बल्कि देखभाल का है, अंकों का नहीं, बल्कि देखने का है.

उन्होंने आगे कहा कि सच्चे शिक्षकों को अक्सर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे अहंकार को सांत्वना देने के बजाय उसे अस्थिर करते हैं. असली शिक्षक छात्र को इस हद तक मुक्त कर देता है कि वह शिक्षक पर निर्भर नहीं रहता. ऐसे शिक्षक को एक ही दिन में मालाओं में बदल देना आत्म-प्रवंचना है. असली शिक्षक कोई व्यक्ति या कैलेंडर की कोई तारीख नहीं, बल्कि सत्य की पुकार है, जो हमें संकीर्णता में जीने नहीं देती.

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उन्होंने कहा कि असली सम्मान साहस है, योग्य और समर्थित शिक्षकों को सुनिश्चित करने का साहस, कक्षाओं के केंद्र में जिज्ञासा को बहाल करने का साहस और बच्चों को शिक्षा के दोनों पहलू बाह्य और आंतरिक देने का साहस. स्पष्टता वाले शिक्षकों के बिना कोई भी राष्ट्र अपनी चतुराई से जीवित नहीं रह सकता. हम इंजीनियर, डॉक्टर और अधिकारी तो पैदा कर सकते हैं, लेकिन बुद्धि के बिना वे केवल अपने लिए ऊंची जेलें ही बनाते हैं. शिक्षक दिवस का मतलब मेज पर फूल रखना नहीं है. यह अगली पीढ़ी को अज्ञानता और भय से मुक्त करने के बारे में है. अगर ऐसा नहीं होता है तो हर दिन शिक्षा का अंतिम संस्कार बन जाता है.

देशबन्धु

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